कई महिलाएं अपने रिप्रोडक्टिव सालों में एंडोमेट्रियोसिस और पॉलीसिस्टिक ओवेरियन सिंड्रोम (PCOS) जैसी समस्याओं का सामना करती हैं। ये दोनों बीमारियां भले ही अलग-अलग हों, लेकिन इसका असर रिप्रोडक्टिव हेल्थ पर पड़ता है। अगर इनका इलाज लंबे समय तक न किया जाए, तो हेल्थ से जुड़ी कई समस्याओं का कारण बन सकती हैं। आइए इस आर्टिकल के माध्यम से इन दोनों समस्याओं और कंट्रोल करने के तरीके के बारे में विस्तार से जानते हैं। इसकी जानकारी लखनऊ, इंदिरा आईवीएफ हॉस्पिटल लिमिटेड की गायनेकोलॉजिस्ट एवं आईवीएफ एक्सपर्ट, डॉक्टर पवन यादव ने शेयर की है।
एंडोमेट्रियोसिस एक ऐसी कंडीशन है, जिसमें यूट्रस के अंदर की परत जैसा टिश्यू यूट्रस के बाहर बढ़ने लगता है। यह टिश्यू पेल्विक लाइनिंग, ओवरीज या योनि और ब्लैडर के बीच की जगह में दिख सकता है। यह लगभग 10 में से 1 महिला को प्रभावित करता है और इससे प्रेग्नेंट होने में मुश्किल आती है। इससे 30 से 50 प्रतिशत महिलाओं को रिप्रोडक्टिव से जुड़ी समस्याएं होती हैं। यह दिल के रोगों जैसी स्वास्थ्य समस्याओं से भी जुड़ा हुआ है।
इसकी पहचान करने के लिए डॉक्टर अक्सर लैप्रोस्कोपी जैसी प्रोसेस का इस्तेमाल करते हैं।
पीसीओएस 6 से 15 प्रतिशत महिलाओं को प्रभावित करता है और यह इनफर्टिलिटी का मुख्य कारण है। यह टाइप 2 डायबिटीज और दिल की बीमारियों के खतरे को भी बढ़ा सकता है। PCOS का पता लगाने के लिए कोई खास टेस्ट नहीं है। इसे डायग्नोज करने के लिए कोई स्पेशल टेस्ट नहीं है। डॉक्टर आमतौर पर कुछ लक्षण देखकर पहचान करते हैं, जैसे-
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फाइब्रॉएड यूट्रस में होने वाली नॉन-कैंसर्स गांठें हैं, जबकि पीसीओएस में ओवरीज में छोटे-छोटे सिस्ट होते हैं, जो एग्स को रिलीज होने से रोकते हैं। रिसर्च के मुताबिक, पीसीओएस से परेशान महिलाओं में फाइब्रॉएड का खतरा ज्यादा हो सकता है, क्योंकि एस्ट्रोजन हार्मोन का असर लंबे समय तक बना रहता है।
हालांकि, दोनों एक दूसरे से कैसे जुड़े हैं? यह बात अभी साबित नहीं हो पाई है और इस पर ज्यादा रिसर्च की जरूरत है।
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