अगर बात एक मां की करें तो वह अपने बच्चों के लिए किसी भी मुश्किल से लड़ने की ताकत रखती हैं। जब एक मां अपने मन में कुछ करने की ठानती है, तो किस तरह से वह अपने राह में आने वाली हर चुनौती को मौके में बदलने का माद्दा रखती है, पूनम मुत्तरेजा इसकी मिसाल हैं। उन्होंने अपने जोश और जज्बे की वजह से ही, मां होने के साथ-साथ प्रोफेशनल लाइफ में भी कामयाबी हासिल की है। उन्होंने उम्मीद की डोर को थाम कर हर मुश्किल सफर को भी आसान बना लिया।
पूनम मुत्तरेजा पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएफआई) की एग्जीक्यूटिव डॉयरेक्टर हैं। पूनम मुत्तरेजा महिलाओं के अधिकारों और उनके कल्याण के लिए 40 साल से काम कर रही है। सिर्फ यही नहीं, पूनम मुत्तरेजा ने साल 2014 में पीएफआई द्वारा शुरू किए गए 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' कैंपेन में अपना योगदान देकर देश में महिलाओं के कल्याण की मुहिम को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है।
पूनम मुत्तरेजा पीएफआई की एग्जीक्यूटिव डॉयरेक्टर होने के साथ-साथ एक मां भी हैं। वह हर महिला और मां के लिए बड़ी इंस्पिरेशन हैं। एक अच्छी और परफेक्ट मां होने का मतलब पूनम मुत्तरेजा के लिए क्या है? इस सवाल का जवाब हरजिंदगी की स्पेशल सीरीज 'The Good Mother Project' के जरिए पूनम मुत्तरेजा ने हमारे साथ खास बातचीज में साझा किया है।
1)कई स्टडी और अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि 75 प्रतिशत महिलाएं मां बनने के बाद अपनी जॉब और करियर को छोड़ देती हैं। इसपर आपकी क्या राय है?
मेरा मानना है कि यह एक ग्लोबल फेनोमेनन है। कुछ महिलाएं ऐसी होती हैं जो मां बनने के बाद करियर और सपनों को पीछे छोड़ देती हैं, पर वहीं कुछ महिलाएं ऐसी भी होती हैं जो मां बनने के कुछ समय बाद फिर से अपने करियर में आगे बढ़ती हैं। यह इस बात को भी दर्शाता है कि उनके अंदर इतना कॉन्फिडेंस और सेल्फ एस्टीम भी है कि वह अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए किसी के कहने पर रुकती नहीं हैं, फिर चाहे घर का काम हो या फिर वह अपने बच्चों की केयर करती हो। अगर घर में भी कोई व्यक्ति बीमार भी होता है, तो भी एक महिला को ही हमेशा घर की सभी जिम्मेदारियों को संभालना पड़ता है और हर किसी की देखभाल भी उन्हें ही करनी होती है। हर कोई समाज में यही एक्सपेकटेशन रखता है कि महिलाओं को ही सारी जिम्मेदारियां संभालनी चाहिए। मुझे अभी भी याद है कि जब मेरी बेटी ने स्कूल में छोटी-सी गलती कर दी थी, तो मुझे स्कूल बुलाया गया था और यह भी कहा गया था कि वर्किंग मदर के बच्चों के साथ तो ऐसी ही प्रॉबल होगी ही। मेरा मानना है कि यह समाज की रूढ़िवादी सोच का ही परिणाम है और इस कारण से ही महिलाएं पिछड़ी जा रही हैं।
2)पेरेंटिंग का बर्डन महिलाओं के ऊपर ही सबसे अधिक क्यों होता है और अगर कोई मां अपने लिए किसी से एक्सपेकटेशन रखती है तो वह सभी की नजरों में गलत क्यों हो जाती है?
मेरा मानना है कि एक मां होना ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी होती है, लेकिन समाज के लोगों के मन में उनके लिए रिसपेक्ट उतनी नहीं है जितनी होनी चाहिए। बहुत-सी महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्हें डिलिवरी के समय जान का भी खतरा हो सकता है। कई महिलाओं को तो डॉक्टर्स देखने से भी मना कर देते हैं, क्योंकि उनके लिए अगर किसी महिला के बच्चे हो चुके हैं और वह किसी अन्य चेकअप के लिए भी आई है तो उस महिला को चेकअप की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह मां तो पहले ही बन ही चुकी है। (कौन हैं पल्लवी उतागी)
3)समाज में कई लोग यह सोचते हैं कि अगर कोई महिला मां नहीं बनती है, तो वह सही नहीं है लेकिन अगर कोई महिला मां बन जाती है और सोपर्ट के लिए कहती है तो उसे वह सोपर्ट नहीं दिया जाता है। इसपर आपकी क्या राय है?
अगर आप देखें कि जो महिला अपने लिए कुछ मांगती है, तो वह कई लोगों की नजर में सही नहीं होती है। अपना हक और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी उन्हें लोग स्वार्थी मानते हैं। बहुत-सी महिलाओं को पोस्टनेटल डिप्रेशन भी होता है। इस दौरान ना सिर्फ फिजिकल, बल्कि मेंटल हेल्थ और इमोशनली भी एक मां पर बहुत असर पड़ता है। हमारे पास इस बात का डेटा भी है कि 60 प्रतिशत से अधिक महिलाओं को एनीमिया है और ये सिर्फ गरीब परिवारों की महिलाएं नहीं हैं, बल्कि बड़े घरों की भी महिलाएं हैं। कई महिलाओं को तो स्वास्थ्य संबंधित परेशानी होने पर सही समय पर अस्पताल भी नहीं लेकर जाया जाता है, जिससे उन्हें लंबे समय तक बीमारी का सामना करना रड़ता है।
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4)एक मां के लिए अपने काम या करियर को फिर से शुरू करने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परेशानियों का समाधान कैसे निकाला जा सकता है?
सबसे पहले तो महिलाएं जहां भी काम कर रही हैं उन्हें वहां सपोर्ट मिलना चाहिए और उनके घर पर अगर किसी तरह की परेशानी होती है, तो उन्हें वर्क फ्रॉम होम मिलना चाहिए, ताकि उन्हें काम करने में परेशानी ना हो और वह काम के साथ-साथ घर को मैनेज कर पाए। हर कंपनी को महिलाओं को सपोर्ट करने के साथ-साथ उन्हें और उनके काम को रिसपेक्ट देना बेहद जरूरी है। हमारे देश में हर रोज एक महिला 6 घंटे का अनपेड वर्क अपने घर में करती है।
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5)मां से जुड़ी हुई एक घारणा लोगों के मन में बनी हुई है कि वह सबकुछ कर सकती हैं फिर चाहे वह घर की जिम्मेदारी हो या फिर बच्चों की देखभाल, क्या ऐसी सोच रखना सही है?
जब मैं हिंदी फिल्में देखती थी, तो हमेशा एक मां के कैरेक्टर को बेहद इमोशनल दिखाया जाता था। फिल्मों का हमारे समाज पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यह एक डॉयरेक्टर की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह ऐसे चीजों को कभी बढ़ावा न दे, जो समाज के लोगों की सोच को नीचे गिराए। इसके अलावा टीवी धारावाहिकों में भी यह दिखाया जाता है कि वह सिर्फ घर को संभालती है और वहीं जो महिला काम करती है उसे गलत दृष्टि से शो में दिखाया जाता है।
6) न्यूक्लियर फैमिली में पति-पत्नी के बीच जिम्मेदारियों को बांटना भी काफी अलग होता है। आपकी इसपर क्या राय है?
एक तो हमें अपनी बेटियों को यह समझाना होगा कि वह अपने सपनों को पूरा करना सीखें और गलत सोच से दूर करना होगा। साथ ही, अपने बेटों को भी यह सीख देनी होगी कि एक पुरुष और एक महिला बराबर होते हैं और आगे जाकर आपको अपनी फैमिली में जिम्मेदारियों को लेना सीखना होगा। एक लड़के को सेल्फ सेंटर्ड नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे अपने परिवार की जिम्मेदारियों को उठाने के साथ-साथ अपनी वाइफ की केयर और सपोर्ट भी करना चाहिए।( डॉ स्वाति पिरामल के बारे में जानें)
7)क्या आप यह मानती हैं कि एक अच्छी मां की परिभाषा को बदलने समय अब हमारे समाज में आ चुका है?
अगर कोई भी व्यक्ति यह सोचता है कि एक अच्छी मां की परिभाषा यह है कि आपको हमेशा अपने सपनों का बलिदान देना है और अकेले ही सबकुछ संभालना है तो यह सही नहीं है। अब समय बदल रहा है और लोगों को यह समझना चाहिए कि एक मां भी अपने सपनों को पूरा करना चाहे तो कर सकती है। मेरा मानना है कि किसी भी फैमिली में एक मां के ऊपर कोई दबाव नहीं होना चाहिए और यह तभी हो सकता है, जब पुरूष अपनी सोच में बदलाव लाएंगे और महिलाएं भी कभी खुद को किसी से कम नहीं समझेंगी।
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