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Vim liquid for men

Vim Ad के बाद भी क्या बर्तन धोना सीख पाएंगे पुरुष? जेंडर स्टीरियोटाइप तोड़ना इतना आसान भी नहीं

विम लिक्विड जेल से जुड़ी कॉन्ट्रोवर्सी ने एक बहुत अहम सवाल छेड़ दिया है। क्या पुरुषों को बर्तन धोना सिखाया जा सकता है या नहीं?
Editorial
Updated:- 2022-12-12, 13:26 IST

इन दिनों जेंडर सेंसिटिविटी को लेकर बहुत सी बातें हो रही हैं और लगभग हर सेक्टर में इससे जुड़े उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। अब ट्विटर पर ट्रोल होने का सिलसिला शुरू हो चुका है और ऐसे में कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स के विज्ञापन भी जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश कर रही हैं। पर ऐसा करने के बाद भी ट्रोल होने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। हालिया उदाहरण है विम लिक्विड का। विम लिक्विड का नया एड मिलिंद सोमन के साथ फिलमाया गया है जिसमें शर्टलेस मिलिंद एप्रन पहने विम ब्लैक को प्रमोट कर रहे हैं।

विज्ञापन लाइव हुआ और उसके बाद ये सोशल मीडिया पर ना सिर्फ ट्रेंड होने लगा बल्कि ट्रोल भी होने लगा। इसका कारण? विम ब्लैक का एडवर्टिजमेंट जिसमें पुरुषों के बर्तन धोने के लिए ब्लैक लिक्विड जेल प्रोडक्ट के लॉन्च होने की बात की गई थी।

इससे पहले कि हम कुछ और बोलें आप पहले ये विज्ञापन देख लें।

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विज्ञापन सामान्य सा दिख रहा है, लेकिन ये ट्रोल होने लगा।

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आखिर क्यों ट्रोल हुआ ये विज्ञापन?

क्या रंगों का भी जेंडर होता है? पर किसी भी प्रोडक्ट को अगर पुरुषों के लिए लॉन्च करना है तो उसे ब्लैक रंग में रंग दिया जाता है। ऐसे ही महिलाओं के लिए प्रोडक्ट हो तो उसे पिंक, रेड जैसे रंग दिए जाते हैं। फेयर एंड लवली से लेकर जिलेट रेजर तक सभी कंपनियों के साथ यही होता आया है। पर ये जेंडर सेंसिटिविटी तो नहीं कही जाएगी। ना ही रंग का कोई जेंडर होता है और ना ही बर्तन धोना ब्रैग करने की बात है क्योंकि ये तो महिलाओं और पुरुषों दोनों का काम होना चाहिए। क्या आपने किसी महिला को कहते सुना है कि - 'आज तो मैंने इतने कपड़े धोए कि बस सुबह का काम नहीं हो पा रहा है,' या फिर क्या किसी के स्टेटस में ये लिखा देखा है कि 'वॉशिंग डिशेज विद पॉप ... हैविंग फन'।

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यही कारण है कि इस विज्ञापन को ट्रोल करना शुरू किया गया, लेकिन यहां भी कहानी में एक ट्विस्ट है।

विम ब्लैक प्रोडक्ट नहीं बल्कि मार्केटिंग स्ट्रेटजी है

हिंदुस्तान यूनिलीवर कंपनी का प्रोडक्ट विम लिक्विड अपने जेंडर सेंसिटिव एड्स के लिए फेमस है। ये पहली बार नहीं है जब कंपनी ने अपने किसी विज्ञापन को जेंडर सेंसिटिव बनाने की कोशिश की है और मैं आपको बता दूं कि विम ब्लैक लिक्विड असल में कोई प्रोडक्ट है ही नहीं। ये सिर्फ एक मार्केटिंग स्ट्रेटजी थी जिसका उद्देश्य मेरे हिसाब से तो पुरुषों को बर्तन धोना सिखाना था। पर पुरुष इतनी आसानी से बर्तन धोना सीख लें ये जरूरी नहीं है।

कंपनी की तरफ से ये बात साफ की गई कि ये सिर्फ एक मजाक था और लिक्विड वही है।

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कंपनी की तरफ से एक पूरी की पूरी मार्केटिंग स्ट्रैटजी लग गई कि आखिर पुरुषों को बर्तन धोना चाहिए। जब काम एक जैसा है तो फिर उसका असर भी एक जैसा ही होगा। ये पहली बार नहीं है जब विम ब्रांड की तरफ से कुछ ऐसे जेंडर सेंसिटिविटी कैम्पेन चलाए गए हैं। इसके पहले भी कई बार विम की तरफ से पुरुषों को बर्तन धोने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया गया है। उनकी एक एड कैम्पेन में तो वीरेंद्र सहवाग भी थे।

इसके अलावा रिश्ता मीटिंग के समय लड़की और लड़के की बातचीत और जेंडर सेंसिटिविटी को बहुत ही अच्छे से दिखाया गया था।

ये बात तो देखिए सही है कि बर्तन धोने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं होती। बल्कि ये समझने की जरूरत है कि किसी भी काम की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं को दी जाए तो ये सही नहीं है।

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क्या अब बर्तन धोना सीख पाएंगे पुरुष?

सौ बात की एक बात सवाल अभी भी वहीं है कि एक कंपनी ने पुरुषों के बर्तन धोने को लेकर पूरी कैम्पेन चला दी है। पर क्या अभी भी वो बर्तन धोना सीख पाएंगे या फिर नहीं? घर के काम करने को लेकर हमेशा ही ये माना जाता रहा है कि ये तो महिलाएं ही करेंगी। सदियों से यही प्रथा चली आ रही है और देखिए इस बात को आप नकार नहीं सकतीं कि हिंदुस्तान में 'राजा बेटा सिंड्रोम' भी है जहां लड़कों की मां को हमेशा ये लगता है कि उनका राजा बेटा भला घर का काम कैसे करेगा।

इसकी वजह से बहुओं की परेशानी और बढ़ जाती है क्योंकि अधिकतर लड़कों की आदत होती है कि उनके दिन की शुरुआत चाय हाथ में मिलने से होती है। हालांकि, मेरा देश तो बदल रहा है और धीरे-धीरे ही सही आगे भी बढ़ रहा है पर अभी जेंडर स्टीरियोटाइप को लेकर एक बहुत ही लंबी लड़ाई बाकी है।

इंटरनेट यूजर्स प्रोग्रेसिव हो गए हैं और जेंडर सेंसिटिविटी इशू भी अब संसद तक में गूंजने लगा है, लेकिन फिर भी एक सामान्य भारतीय घर में एक महिला ऑफिस जाने से पहले चार पराठे सेंक कर जाए और घर आकर दाल, चावल, रोटी, सब्जी के साथ रायता और सलाद भी बनाए ये उम्मीद की जाती है।

ब्रांड्स धीरे-धीरे जेंडर सेंसिटिविटी की ओर ध्यान तो दे रहे हैं, लेकिन इतनी जागरुकता फैलाने का काम तब तक सफल नहीं होगा जब तक एक आम भारतीय घर की मानसिकता नहीं बदलेगी। बात कुछ समझ आई?

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