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शादी में ‘चूड़ा’ और ‘सिंदूर’ सिर्फ औरतें ही क्यों पहनती हैं, पति के लिए नहीं है सुहाग की कोई निशानी?

हम जब भी किसी स्त्री को सिंदूर और चूड़े में देखते हैं तब मन में यही बात आती है कि यह शादीशुदा है, लेकिन पुरुषों को देखकर कैसे पता चलता है कि उनकी शादी हुई है या नहीं? वास्तव में एक सवाल जो समाज और लोगों से है कि महिलाओं के लिए शादी की कई निशानियां हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कोई बंधन नहीं है?
Editorial
Updated:- 2025-09-11, 18:39 IST

भारतीय शादियों की परंपराओं में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं सुहाग की निशानियां। चूड़ा, बिंदी, सिंदूर, मंगलसूत्र, बिछिया जैसी चीजें न केवल एक स्त्री की वैवाहिक स्थिति को दर्शाती हैं, बल्कि इन श्रृंगार सामग्रियों के बिना विवाह को अधूरा माना जाता है। सदियों से चली आ रही परंपरा की मानें तो ये निशानियां न सिर्फ एक विवाहित स्त्री के लिए अनिवार्य मानी जाती हैं बल्कि उनके पति की दीर्घायु के लिए भी जरूरी हैं। महिला और पुरुष को बराबर का दर्जा देने वाले समाज से सवाल यह है कि ये श्रृंगार से लेकर घर के काम तक के लिए सारी जिम्मेदारी सिर्फ औरतों पर ही क्यों डाली जाती है? क्यों शादीशुदा पुरुषों के पास महिलाओं की तरह सिंदूर, बिछिया या चूड़ा जैसी कोई सुहाग की निशानी नहीं है? आखिर क्यों शादी के बाद भी पुरुष खुद को बिना किसी बंधन के समाज के सामने घूमते हैं, लेकिन औरतें अपनी कई चीजों और निर्णयों के लिए भी पति या ससुराल के लोगों की एक हामी की मोहताज रहती? यह परंपरा कहीं न कहीं समाज की उस सोच पर प्रश्न चिह्न लगाती है, जो महिलाओं और पुरुषों को एक समान दिखाने का ढिंढोरा पीटते दिखते हैं। समाज की सोच ही नहीं बल्कि ज्योतिषीय दृष्टि से भी यह मान्यता है कि स्त्रियों की ऊर्जा और सौभाग्य पति की आयु और समृद्धि को प्रभावित करता है, लेकिन अगर यही मान्यता पुरुषों पर भी लागू हो, तो शायद विवाह की नींव और भी मजबूत हो सके। विवाह की निशानियों को माथे पर सजाने से लेकर घर की सभी जिम्मेदारियों का बोझ सिर्फ औरतों के कंधे पर ही क्यों? वास्तव में सवाल कई हैं, लेकिन जवाब अभी भी ढूंढ़ रही हूं।

शादी की सभी निशानियां क्या सिर्फ औरतों की जागीर हैं?

भारतीय संस्कृति और विवाह परंपराओं में स्त्री-पुरुष दोनों का समान योगदान होता है, लेकिन जब बात सुहाग की निशानी की आती है तो यह ज़िम्मेदारी और पहचान केवल स्त्रियों पर डाल दी जाती है। सदियों से ही ये परंपरा चली आ रही है कि शादी के बाद महिला अपनी मांग सिंदूर से सजाती है, हाथों में चूड़ा या कांच की चूड़ियां पहनती है, पैरों में पाजेब और सोलह श्रृंगार ही एक शादीशुदा महिला की पहचान मानी जाती है।

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हम जब भी एक नजर में किसी लड़की को देखते हैं तब उसकी इन निशानियों से ही उसके शादीशुदा होने की पहचान हो जाती है। वहीं पुरुषों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है जिससे उनके शादीशुदा होने का पता चले। सवाल यही उठता है कि आखिर क्यों? क्या वास्तव में शादी की सभी निशानियां सिर्फ औरतों की जागीर हैं?

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सदियों से चली आ रही परंपरा और सामाजिक संरचना

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अगर हम ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो शादी के समय और विवाह के उपरांत स्त्रियों पर लगाए गए ये नियम पितृसत्तात्मक समाज का परिणाम हैं। शादी के बाद स्त्रियों की पहचान ही उनकी मांग में लगे सिंदूर से होती है। उनके पहनावे को विवाहित और अविवाहित स्त्री के बीच भेद करने का साधन माना जाता है। मंगलसूत्र और चूड़ा पहनने से ही एक महिला सुहागन कहलाती है और यह मान्यता भी है कि इन्हें पहनने से पति की उम्र लंबी होती है। लेकिन अगर हम वही तर्क  पुरुषों पर लागू करें तो ऐसी कोई ठोस परंपरा नहीं दिखाई देती है। पति के लिए न तो कोई चूड़ा है और न ही कोई सिंदूर जो उनकी वैवाहिक स्थिति को दिखाए। वास्तव में यह पितृसत्तात्मक सोच नहीं है तो और क्या है? आखिर क्यों पत्नी की पहचान ही पति से है? आखिर क्यों सिर्फ महिलाएं ही हमेशा पितृसत्तात्मक समाज की मोहताज हैं?

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ज्योतिष के अनुसार भी सारे नियम महिलाओं के लिए ही क्यों?

ज्योतिष शास्त्र में भी सिंदूर और मंगलसूत्र का गहरा महत्व बताया गया है। सिंदूर को मंगल ग्रह से जोड़ा जाता है। मंगल ऊर्जा, बल और जीवनशक्ति का प्रतीक माना जाता है। ज्योतोष में ऐसा कहा जाता है कि विवाहित स्त्री जब सिंदूर लगाती है तो इससे पति की रक्षा होती है और दांपत्य जीवन खुशहाल रहता है। वहीं चूड़ा और सुहाग के लाल रंग को शुक्र और मंगल ग्रह से जोड़ा जाता है। शुक्र ग्रह प्रेम और दांपत्य सुख का कारक माना जाता है, वहीं मंगल वैवाहिक जीवन की शक्ति का प्रतीक है। इसलिए शादी के समय लाल, गुलाबी और चटख रंग के चूड़े दुल्हन को पहनाए जाते हैं। वहीं मंगलसूत्र को शनि और राहु-केतु के बुरे प्रभाव से बचाने वाला माना गया है। मंगलसूत्र के सोने और काले मोतियों से बना होने का कारण नकारात्मक शक्तियों को दूर रखना होता है। अब सवाल यह है कि अगर ग्रहों की शांति और पति की लंबी उम्र के लिए ये सब एक पत्नी के लिए जरूरी है, तो पति के लिए ऐसा कोई नियम क्यों नहीं है? क्या केवल पत्नी पर  ही जीवनसाथी को दीर्घायु बनाने की जिम्मेदारी है? आखिर ऐसी कोई बाध्यता पति के लिए क्यों नहीं है? वास्तव में ज्योतिष में भी इस प्रश्न का जवाब नहीं मिलता है, बल्कि यह भी पुरुषों की सत्ता को ही उजागर करता है।

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पुरुषों के लिए क्यों नहीं बनी सुहाग की कोई निशानी?

अगर हम सामजिक परंपराओं की बात करें तो सदियों से ही यही परंपरा है जिसे हम बिना किसी सवाल के आगे बढ़ा रहे हैं। पुरुष ही नहीं न जाने कितनी महिलाएं ही खुद को सुहाग की निशानियों का आधीन मानकर बैठी हैं। सवाल अभी भी यही है कि पुरुषों के लिए क्यों नहीं बनी सुहाग की कोई निशानी? समाज की परम्पराएं ही नहीं बल्कि ज्योतिष और शास्त्रों में भी जितने नियम बनाए गए हैं वो सिर्फ महिलाओं के लिए ही हैं। अगर कोई महिला सिंदूर से अपनी मांग भरती है तो उसे अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद मिलता है। फिर पति पर क्यों नहीं है पत्नी की दीर्घायु की ऐसी कोई जिम्मेदारी? आखिर क्यों रामायण काल से ही अग्नि परीक्षा सिर्फ माता सीता को ही देनी पड़ी थी, जबकि वनवास पर प्रभु श्री राम भी थे?

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क्या है मेरी राय

आखिर क्यों सुहाग की निशानी हमेशा से ही स्त्रियों पर थोपी जाती है? आखिर क्यों समानता का दंभ भरने वाला प्रगतिशील समाज आज भी महिला और पुरुषों में मतभेद करता है? शादी लड़के और लड़की दोनों के बीच का एक अटूट बंधन है, फिर सारे रीति-रिवाज भी दोनों को ही निभाने चाहिए। अगर पत्नी सिंदूर, मंगलसूत्र  और चूड़ा पहनती है, तो पति के लिए भी ऐसी कोई निशानी होनी चाहिए। अगर पति के लिए नहीं है ऐसी कोई बाध्यता तो फिर पत्नी के इन निशानियों को धारण न करने पर प्रश्न चिह्न क्यों लगाया जाता है? असल में, 'सुहाग की निशानी' का मकसद सिर्फ पति की लंबी उम्र और सुरक्षा तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह आपसी प्रेम और एक-दूसरे की जिम्मेदारी का प्रतीक होना चाहिए। अगर औरत मंगलसूत्र पहनकर यह दिखा सकती है कि उसका जीवनसाथी उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है, तो पुरुष को भी ऐसी कोई निशानी पहननी चाहिए। समाज में जब बराबरी की बात होती है और महिलाओं को पुरुषों से कम न होने का दवा किया जाता है, तो पति के लिए क्यों नहीं है सुहाग की कोई निशानी? ऐसे सवाल समाज की सोच पर प्रश्नचिह्न हैं।

परंपरा और ज्योतिष का सम्मान करना जरूरी क्यों न हो,  लेकिन बदलते समय में हमें इन मान्यताओं पर सवाल जरूर उठाना चाहिए और उन्हें बराबरी के नजरिये से ढालना चाहिए। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से। अपने विचार हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।

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