कश्मीर को यहां की प्राकृतिक खूबसूरती, बर्फ से ढकी वादियों, चीड़ और देवदार के पौधों, विशिष्ट खानपान और अलहदा संस्कृति के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। कश्मीर की ख़ूबसूरती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के बारे में कहा गया है, 'गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त' इसका शाब्दिक अर्थ है कि अगर धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही है।
डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' में हालांकि कश्मीर के बेहद डरावना चेहरा भी दिखाया गया है जोकि आतंकवाद से ग्रसित है और इसका प्रभाव वहां के सामान्य जन-जीवन पर भी पड़ता है। मूवी के एक सीन में जब आतंकवाद के कारण अपना पूरा परिवार खो चुका कृष्णा यूनिवर्सिटी में स्पीच देता है- तब वो कश्यप ऋषि से कश्मीर की पहचान बताता है, वो कहता है, 'मैं उस कश्मीर को जानता हूं जहां आज भी लल्लेश्वरी के वाख सुनाई देते हैं।' बता दें कि कश्यप ऋषि के नाम पर ही कश्मीर का नामकरण हुआ है।
लल्लेश्वरी जिनके बारे में फिल्म के सीन में ज्यादा कुछ नहीं बताया गया है, आखिर वह कौन हैं? कश्मीर से उनका कैसा ताल्लुक रहा है और क्यों उनके गीत आज भी कश्मीर के लोगों की जुबान पर हैं, आइए जानें कौन थीं लल्लेश्वरी?
कश्मीर की सूफी संत लल्लेश्वरी
कश्मीर में लल्लेश्वरी को लल्ल-द्यद के नाम से भी जाना जाता है। वो एक सूफी संत थीं और शिव जी की अनन्य भक्त थीं। लल्लेश्वरी का का जन्म कश्मीर के श्रीनगर से दक्षिण-पूर्व के एक गांव में हुआ था। बहुत कम उम्र में ही लल्लेश्वरी का विवाह कर दिया गया। ससुराल में लल्लेश्वरी को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कश्मीरी में प्रचलित कथाओं के मुताबिक, लल्लेश्वरी जब भी पीने का पानी भरने जाती थीं तब भगवान की भक्ति में लीन हो जाया करती थीं। जिस कारण से उन्हें पानी भर कर लाने में काफी समय लगता था।
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एक बार इसी बात पर उनका पति काफी नाराज हुआ और पानी भरे मटके पर डंडा मारा। मटके में दरार आ गई लेकिन पानी की एक भी बूंद बाहर नहीं गिरी। लल्लेश्वरी ने उसी मटके से घर के सारे बर्तन भर डालें। इसके बाद दरार वाले मटके को घर के बाहर एक छोटे से गड्ढे में फेंक दिया। लल्लेश्वरी के तप के प्रभाव से वो गड्ढा पानी की बावली में तब्दील हो गया। कश्मीर में आज भी वो बावली स्थित है। शादीशुदा जीवन अच्छा ना होने के कारण और पति के अत्याचारों से परेशान होकर लल्लेश्वरी ने घर छोड़ दिया और फिर एक गुरु से गुरु दीक्षा प्राप्त की।
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लल्लेश्वरी अक्सर ईश्वर भक्ति में लीन रहकर खुद ही सुध-बुध भूलकर भजन गाते हुए सड़कों पर निकल जाया करती थीं। उन्हें खुद की अवस्था का बिलकुल भी होश नहीं रहता था। उनकी ये हालत देखकर लोग उनका मजाक बनाते और उन्हें चिढ़ाते। लेकिन इस बात से बिल्कुल परेशान ना होकर लल्लेश्वरी भजन ही करती रहतीं।
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लल्लेश्वरी भगवान शिव की अनन्य उपासक थीं। उन्होंने कश्मीरी भाषा में कई दोहे भी लिखे जिसे वाख कहा जाता है। लल्लेश्वरी ने इन वाखों के माध्यम से ही जाति और धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर जीवन से जुड़े भक्ति मार्ग पर चलने का संकेत दिया। हिंदी पट्टी में जो रुतबा संत कबीर के पास है वही कश्मीरी भाषा में लल्लेश्वरी का है। ऐसा माना जाता है कि आज भी कश्मीर की वादियों में लल्लेश्वरी के दर्द भरे वाख गूंजते हैं। वहां के नाव चलाने वाले वाले भी अक्सर राइड के दौरान लल्लेश्वरी के वाख गुनगुनाते हैं।
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image credit: imbd/pixabay/kashmirasitis
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