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सामा-चकेवा पर्व बिहार में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। ये एक अत्यंत महत्वपूर्ण और मनमोहक लोक पर्व है, जिसे छठ पूजा के तुरंत बाद मनाते हैं। बता दें, ये त्योहार कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि से शुरू होकर पूर्णिमा तक मनाया जाता है। यह पर्व भाई-बहन के पवित्र रिश्ते और प्रेम का प्रतीक है। ऐसे में इस महत्वपूर्ण त्योहार को मनाने की परंपरा कब से शुरू हुईं और इसके पीछे क्या इतिहास है, आज का हमारा लेख इसी विषय पर है। आज हम आपको अपने इस लेख के माध्यम से बताएंगे कि सामा-चकेवा को मनाने के पीछे क्या कारण है। पढ़ते हैं आगे...
सामा चकेवा मुख्य रूप से बिहार के साथ-साथ मिथिलांचल और नेपाल के कुछ हिस्सों में बड़े जोरों-शोरों से मनाया जाता है।

साथ ही झारखंड, बंगाल, उड़ीसा में भी इसे मनाने की परंपरा चली आ रही है।
इस पर्व पर मिट्टी की मूर्तियों का विशेष महत्व है। भाईयों के लिए बहनें सामा-चकेवा, चुगला और अन्य पात्रों की छोटी-छोटी मूर्तियां स्वयं बनाती हैं और उन्हें रंगती व सजाती हैं।
जो बहनें इस पर्व का हिस्सा बनती हैं वे मुख्य तौर पारंपरिक मैथिली पोशाक पहनती हैं। बता दें कि ये 'साड़ी' के रूप में होती हैं, जिन पर अक्सर मधुबनी कला की पेंटिंग या विशेष बॉर्डर छपा होता है।
वहीं, बहनें रोज शाम को टोकरी में इन मूर्तियों को सजाकर, पारंपरिक लोकगीत गाते हुए उन्हें इकट्ठा करती हैं। गीतों में मुख्य रूप से चुगला को खरी-खोटी सुनाई जाती है और भाई के प्रेम और उसकी रक्षा की कामना की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस त्योहार में, चुगला एक काल्पनिक पात्र होता है, जो श्यामा (सामा) और चारुदत्त (चकेवा) के रिश्ते के बारे में गलत आरोप लगाता है।
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सामा-चकेवा छठ के तुरंत बाद मनाया जाता है क्योंकि यह दोनों पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष में आते हैं और दोनों ही प्रकृति तथा पारिवारिक पवित्रता पर आधारित हैं।

छठ पूजा जहां सूर्य देव और छठी मैया की उपासनाकर परिवार की समृद्धि के लिए की जाती है, वहीं सामा-चकेवा उस समृद्धि की रक्षा और भाई-बहन के प्रेम को मजबूत करने का संदेश देता है। यह परंपरा लोक आस्था और अटूट पारिवारिक बंधनों को दर्शाती है। सामा चकेवा से जुड़ी एक कथा भी है, जिसे पढ़ने का महत्व है।
7 दिनों तक बहनें भाई के अच्छे जीवन के लिए मंगल कामना करती हैं। वहीं, आखिरी दिन कार्तिक पूर्णिमा को सामा-चकेवा को टोकरी में सजाकर नदी तालाबों के घाटों पर ले जाया जाता है और पारंपरिक गीतों के साथ सामा चकेवा का विसर्जन किया जाता है।
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