‘Trial By Fire’ नेटफ्लिक्स ला रहा है 'उपहार सिनेमा अग्निकांड' पर बेस्ड फिल्म। ये वेब सीरीज 1997 ‘उपहार सिनेमा अग्निकांड’ पर आधारित है। इसका ट्रेलर आज यानी 4 जनवरी को रिलीज हो गया है। 1997 में उपहार सिनेमा में फिल्म के शो के दौरान आग लग गई थी। इस घटना में करीब 59 लोगों की जान चली गई थी। वहीं 100 से अधिक लोग घायल हो गए थे। इस सीरीज में दिखाया गया है कि कैसे माता-पिता दो दशकों से भी ज्यादा समय तक इंसाफ के लिए जंग लड़ते हैं। यह वेब सीरीज 13 जनवरी को नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम होगी।
नीलम कृष्णमूर्ति और शेखर कृष्णमूर्ति की कहानी पर आधारित यह वेब सीरीज है। जब महिलाएं जीवन में किसी बड़े हादसे का सामना करती हैं तो उनमें जिंदगी की चुनौतियों से लड़ने की हिम्मत लगभग खत्म हो जाती है। खासतौर पर अपनों को खो देने के बाद इंसाफ पाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ना आसान नहीं है। लेकिन न्याय पाने की आस में पिछले 23 साल से लगातार संघर्ष कर रही हैं नीलम कृष्णमूर्ति, उन्होंने HerZindagi के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में अपने स्ट्रगल के बारे में बताया।
Extremely disappointed,biggest mistake in my life was coming to court. Lost faith in judiciary: Neelam Krishnamoorthy,AVUT to ANI #Uphar
— ANI (@ANI) February 9, 2017
23 साल पहले की बात है। वो दिन था 13 फरवरी, 1997। नीलम कृष्णमूर्ति अपनी बेटी को कॉलेज जाने के लिए खुशी से तैयार कर रही थीं। नीलम की बेटी उन्नति की आंखों में ढेर सारे सपने थे। वह खुले आकाश में उड़ना चाहती थी, अपने पंखों को पसारना चाहती थी। उस दिन 17 साल की उन्नति और उनके 13 साल के बेटे ने वही सबकुछ किया, जो आमतौर पर बच्चे करते हैं। खेलकूद और मस्ती। तब 'बॉर्डर' फिल्म नई-नई रिलीज हुई थी और नीलम कृष्णमूर्ति के बच्चे ये फिल्म देखने के लिए बहुत एक्साइटेड थे। नीलम ने बच्चों उपहार सिनेमा में बच्चों के लिए टिकट बुक कराई। बच्चों की खुशी की खातिर नीलम कृष्णमूर्ति ने उनके लिए टिकट बुक की थीं। उन्हें नहीं पता था कि वह बच्चों को फिर कभी जिंदा नहीं देख पाएंगी। नीलम कृष्णमूर्ति को खबरों के जरिए पता चला कि उपहार सिनेमा में आग लग गई है।
भयानक हादसों में गिना जाता है उपहार सिनेमा हादसा
उनके बच्चे हंसते-खेलते हुए सिनेमाघर गए थे, लेकिन वापस आईं उनकी डेड बॉडीज। देश के सबसे भयानक हादसों में गिना जाता है उपहार सिनेमा हादसा। इस दिन बॉर्डर फिल्म के शो के दौरान ट्रांसफॉर्मर में आग लग गई थी, जिसकी वजह से जहरीली कार्बन मोनोऑक्साइड गैस पूरे सिनेमाघर में फैल गई थी और 59 लोगों की जान चली गईं थी। इसी हादसे ने नीलम कृष्णमूर्ति ने उनके दोनों टीनेज बच्चों उन्नति और उज्ज्वल की जिंदगी छीन ली। ये बच्चे, जो देश का भविष्य थे, लोगों की लापरवाही का शिकार होकर असमय मौत के शिकार हो गए। उस दिन को याद करके नीलम कृष्णमूर्ति आज भी अफसोस करती हैं। नीलम के बच्चों की मौत asphyxiation(दम घुटने) के चलते हुई थी।
#uphar-Heard Neelam Krishnamoorthy talk of injustice by SC. How true. she spoke so well, genuine anguish and lambasted SC. Justice for rich
— Srikanth (@srikanthan09) August 20, 2015
नीलम कृष्णमूर्ति ने इस हादसे में लोगों की मौत के कारणों पर कहा, 'इस हादसे में किसी भी विक्टिम की मौत जलकर नहीं हुई थी। सभी लोगों की मौत दम घुटने की वजह से हुई थी। जब यह दुर्घटना घटी, तो फिल्म लगातार चलती रही, ना फिल्म देख रहे लोगों को सूचित नहीं किया गया और ना ही इमरजेंसी लाइट की व्यवस्था की गई और ना ही दरवाजे खोले गए।'
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दोषपूर्ण व्यवस्था फिर से लाए जाने को दी है चुनौती
नीलम कृष्णमूर्ति ने इस मामले में अपने बच्चों को गंवाने के बाद सिनेमाघरों में सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद बनाए जाने के लिए आवाज उठाई। नीलम बताती हैं, 'अदालत ने इस मामले को लेकर कहा था कि अलग-अलग विभागों के बजाय एक सिंगल नोडल एजेंसी होनी चाहिए। इससे पहले एमसीडी, डीएफएस, एनसीटी, सभी के अलग-अलग एनओसी देने का प्रावधान था। साल 2011 में ये गाइडलाइन जारी की गईं, जिन्हें गवर्नर ने 2015 में नोटिफाई किया था। लेकिन इससे स्थितियों में ज्यादा बदलाव नहीं आया। नीलम कृष्णमूर्ति बताती हैं, 'नोटिफिकेशन तो आया, लेकिन सिनेमाघर इसे चैलेंज कर रहे हैं। बहुत से सिनेमाघर डीसीपी लाइसेंसिंग वाले पुराने सिस्टम में रहना चाहते हैं। मैं हाईकोर्ट में इसे चुनौती दे रही हूं, क्योंकि यह व्यवस्था दोषपूर्ण है और इसी की वजह से इतने सारे लोगों की जान चली गई।'
#UphaarInjustice. A famous saying ‘Justice delayed is justice denied’. In India the legal system ensures that justice is denied due to inexplicably long delays. A proud Indian feels sad at this travesty of justice
— Ravishankar (@ravi_iyer) February 20, 2020
स्थितियां बेहतर बनाने को जारी रखे प्रयास
इस हादसे के बाद सिनेमाघरों में फिल्म दिखाए जाने के दौरान बताया जाने लगा था कि फिल्म देखने के बाद किस तरह से सिनेमा हॉल से बाहर निकलना है और कहां-कहां से एक्जिट हैं। नीलम बताती हैं, 'इसके लिए लोगों ने मुझसे कहा था कि आपके संघर्ष की वजह से यह बदलाव आया लेकिन अब फिर से इसे बंद कर दिया गया है। नियमों के मुताबिक सुरक्षा से जुड़ी जानकारी दी जानी चाहिए।'
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नीलम ने आगे बताया, 'ज्यादातर कॉम्प्लेक्सेस में 3-4 सिनेमा हॉल्स होते हैं और उनमें अंदर जाने और बाहर निकलने का एक ही रास्ता होता है। किसी तरह की इमरजेंसी या आग लगने की स्थिति में सभी लोग एक ही सीढ़ी से बाहर भागने की कोशिश करते हैं। हमारी यही कोशिश थी कि हमारे बाद किसी और के साथ यह हादसा ना हो, लेकिन जमीनी स्थितियों में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है और जैसी स्थितियां हैं, उनमें उपहार जैसा हादसा कभी भी दोबारा हो सकता है।' नीलम ने सिनेमाघरों सहित बड़ी बिल्डिंग्स में सुरक्षा से जुड़े उपाय किए जाने का मुद्दा हाईलाइट किया था। उन्होंने पाया कि बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स में किस तरह से फायर सेफ्टी के रूल्स का उल्लंघन किया जा रहा है, जिससे संबंधित एजेंसियां सक्रिय हुई थीं।
उपहार पीड़ियों के लिए बनाया एसोसिएशन
उपहार हादसे में जान गंवाने वालों में नीलम किसी को नहीं जानती थीं, लेकिन उन्होंने पहल करते हुए सभी पीड़ित परिवारों से संपर्क साधने की कोशिश की। नीलम बताती हैं, 'हम 7-8 पीड़ित फैमिली से कॉन्टेक्ट कर पाए और हमने अपनी असोसिएशन बनाई।'
नीलम कृष्णमूर्ति और उनके पति ने उपहार सिनेमा हादसे के दोषियों को सजा दिलाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी, लेकिन दोषियों का अपराध साबित होने के बावजूद उन्हें सजा नहीं मिलने से नीलम कृष्णमूर्ति निराश हुईं। केस के दौरान नीलम कृष्णमूर्ति पर कई बार दबाव बनाने की कोशिश की गई थी। वह बताती हैं, 'मुझे कई बार डराया-धमकाया गया, पैसों का भी लालच दिया गया। हमें कोर्ट में आने से रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए गए, अदालत में हमारे साथ केस लड़ रहे ज्यादातर लोगों ने हार मान ली, क्योंकि हमें बार-बार तारीखें मिलती रहीं। 309 सीआरपीसी की एक संगीन धारा है लेकिन इसके बावजूद आरोपियों के पक्ष में बार-बार केस डिले हुआ। इससे सिर्फ आरोपियों को ही फायदा हुआ। पीड़ित परिवारों को यह नहीं समझ आता था कि मामले में आगे क्या हो रहा है, लेकिन उन्हें हम पर भरोसा था। हम सभी परिवार वालों के साथ मीटिंग करते थे और उन्हें बताते थे कि अदालत में क्या कार्यवाही हुई।'
अपराधियों को दोषी करार दिए जाने के बावजूद नहीं मिली सजा
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने गोपाल अंसल को 1 साल की सजा सुनाई थी, जबकि सुशील अंसल को ज्यादा उम्र (77 साल) के आधार पर राहत दे दी गई थी, जिससे नीलम काफी निराश हुईं। नीलम बताती है, 'अदालत ने कहा सुशील और गोपाल अंसल को 304 A के तहत दोषी माना, लेकिन ये भी कह दिया कि उनका कोई क्रिमिनल रिकॉर्ड नहीं है और वे सीनियर सिटिजन्स हैं। जब यह हादसा हुआ तब वे सीनियर सिटिजन नहीं थे। इस तर्क के हिसाब से तो मेरे बच्चों ने उपहार जाकर गुनाह कर दिया। आखिर मेरे बच्चों की क्या गलती थी, जो उन्हें टीनेज में अपनी जान गंवानी पड़ी। मैंने अपनी बेटी के साथ 17 साल बिता पाई और बेटे के साथ 13 साल और उनके जाने के बाद ये केस लड़ते हुए 23 साल बीत गए। जितना वक्त मैंने उनके साथ जीवित रहते बिताया, उससे ज्यादा वक्त उनका केस लड़ते हुए बिता दिया, लेकिन मुझे इंसाफ नहीं मिला।
सुप्रीम कोर्ट ने किया था खारिज
अदालत ने दिल्ली में ट्रॉमा सेंटर बनवाने के लिए दोनों अंसल भाइयों से 30-30 करोड़ रुपए जमा कराए और इसके अलावा उन्हें कोई और सजा नहीं हुई। ऐसी सजा हमारे देश में पहली बार हुई, जबकि क्रिमिनल केसों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि सजा के बदले पैसे दिए जाएं। Supreme court का जजमेंट आने के बाद हमने रिव्यू पिटिशन डाला लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे बिना सुने उसे खारिज कर दिया। दुख इस बात का है सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें दोषी करार दिया, उन्हें बहुत सी चीजों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया, लेकिन इसके बावजूद जेल नहीं भेजा।'
मेरे बच्चे सिनेमा हॉल में दाईं तरफ बैठे थे। जब सिनेमा हॉल में आग लगी तो उस समय उसके गलियारे और गैंगवेज ब्लॉक थे, क्योंकि अंसल भाइयों ने ये रास्ते बंद करके वहां एक्स्ट्रा सीटें लगाई थीं और अंसल फैमिली के लिए 14 सीट वाला बॉक्स था। यह चीज बाकायदा डॉक्यूमेंट्स में है। अंसल फैमिली ने खुद इस बात के लिए रिक्वेस्ट की थी कि उनकी फैमिली बढ़ गई है, इसलिए इन्हें ज्यादा सीटें चाहिए। ये त्रासदी है कि इन्होंने अपने स्वार्थ और आराम के लिए हमारे बच्चों को मार दिया।
बच्चों के लिए न्याय पाने की खातिर किया संघर्ष
नीलम कृष्णमूर्ति के लिए यह पैसे की नहीं, बल्कि इंसाफ पाने की लड़ाई थी। वह बताती हैं, 'मां बाप अपने बच्चों को देखकर ही अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं। जब पेरेंट्स की मौत होती है, तो इंसान कुछ दिन में उससे उबर जाता है क्योंकि उसे अपने बच्चों पर ध्यान देने की जरूरत होती है। लेकिन जब अपने बच्चों की अर्थी को कंधा देना हो, तो मां-बाप के लिए उससे दुख कोई और नहीं होता।
इस हादसे को 23 साल बीत गए
इस हादसे को 23 साल बीत गए और एक भी दिन ऐसा नहीं गया, जब हम दुखी ना हुए हों। हमने बहुत मजबूती से इस केस को लड़ा है और उसकी वजह सिर्फ यही रही है कि हम अपने बच्चों को इंसाफ दिलाना चाहते थे लेकिन मुझे इस बात का बहुत दुख है कि मैं हार गई। मेरे लिए जिंदगी में अब कोई खुशी नहीं बची है। हम हर दिन यही सोचते हैं कि आज का दिन हमारे लिए आखिरी दिन हो। मेरा देश की न्याय व्यवस्था में बहुत विश्वास था, लेकिन मुझे यह कहते दुख होता है कि न्याय सिर्फ अमीर लोगों को मिल रहा है। गरीब के लिए कोई न्याय नहीं है।' नीलम कृष्णमूर्ति के लिए बच्चों का जाना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी सजा थी।
वह मानती हैं कि उनकी जिंदगी मौत से भी बद्तर है। नीलम कृष्णमूर्ति की लड़ाई अपने बच्चों को न्याय दिलाने के लिए थी। अपने बच्चों के जाने के बाद वह उनके लिए अपना आखिरी फर्ज पूरा करना चाहती थीं, लेकिन मां की यह लड़ाई अधूरी रह गई। उनकी आंखों आज भी नम हैं और अपने बच्चों के लिए तरसती हैं। लेकिन इस दुख के बावजूद नीलम महिलाओं को नाइंसाफी होने पर संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती हैं,
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