भारत में आपको पग-पग पर अलग-अलग संस्कृतियां देखने को मिल जाएंगी। इन संस्कृतियों के साथ-साथ आपको लोगों की भाषा, पहनावा और खान-पान भी अलग-अलग मिल जाएगा। शायद यही वजह है कि आपको साड़ी में एक नहीं ढेरों वैरायटी बाजार में मिल जाएगी। हालांकि, कुछ साडि़यां तो इतिहास में ही कहीं दफन हो चुकी हैं, तो कुछ को पुनर्जीवन दिया जा रहा है।
हम ऐसी ही रिवाइवलिस्ट हेमलता जैन से मिले, जो कर्नाटक की बेहद पारंपरिक पट्टाडा अंचू साड़ी के रिवाइवल पर काम कर रही हैं।
आपको बता दें हेमलता जैन एक एनजीओ चलाती है जिसका नाम ही पुनर्जीवन है और इस एनजीओ के माध्यम से पुरानी साड़ियों को रिवाइव किया जाता है। तो हमने हेमलथा से ही जाना कि आखिर पट्टाडा अंचू साड़ी का क्या इतिहास है।
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पट्टाडा अंचू साड़ी का इतिहास जानें
इस साड़ी का इतिहास 250 वर्ष पुराना है। इस साड़ी को कर्नाटक के लिंगायत समुदय की महिलाओं द्वारा पहना जाता था, जो भगवान शिव के भक्त होते थे। इस साड़ी की खासियत यह थी कि इसे पहले सौंदत्ती स्थित येल्लम्मा मंदिर में येल्लम्मा देवी को चढ़ाया जाता था और फिर इसे पिता अपनी बेटी को शादी में देता था। कई बार जब लिंगायत महिलाएं इस साड़ी को नहीं पहनती थीं तब वह देवदासियों को यह साड़ी दे देती थीं, जिन्हें येल्लम्मा की बेटियां माना जाता था। हेमलता बताती हैं, 'देवदासी श्री कृष्ण की दासियां होती थीं, जो श्रीकृष्ण से ही शादी भी करती थीं और मंदिर में ही रहा करती थीं। देवदासियों के साथ ही इस साड़ी को पहनने की प्रथा भी समाप्त हो गई।'
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क्या है इस साड़ी की खासियत
पहले इस साड़ी में केवल लाल और ब्राउन कलर का ही इस्तेमाल किया जाता था और येलो बॉर्डर हुआ करता था। 45 इंच की इस साड़ी काले रंग का प्रयोग नहीं किया जाता था और इसे बनाने में 6 महीने लगते थे।
अब रिवाइवल के बाद इस साड़ी में लगभग सभी रंग देखने को मिल रहे हैं और इसे फैशनेबल टच देने की भी कोशिश की जा रही है। हेमलता बताती हैं, 'यह शुद्ध कॉटन फैब्रिक से बनी हुई साड़ी होती है और इसे 1050 रुपये से लेकर 2000 रुपये तक में खरीदा जा सकता है।'
बेस्ट बात तो यह है कि इस साड़ी को आप किसी भी डिजाइनर कॉटन के ब्लाउज के साथ कैरी कर सकती हैं।
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