ऑफिस का काम भला कोई कितनी देर कर सकता है? हाल ही में इंडिया में अलग-अलग लोगों ने वर्क कल्चर और वर्क वीक को लेकर बातें करनी शुरू कर दी हैं। ये सब कुछ हुआ है Larson & Turbo के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन के वायरल बयान के बाद जिन्होंने कहा कि उनका बस चलता तो वो अपने कर्मचारियों से हफ्ते में 90 घंटे काम करवाते। ये डिबेट एक बार पहले भी शुरू हुई थी जब इंफोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति ने कहा था कि लोगों को 70 घंटे काम करना चाहिए जिससे हफ्ते का पूरा काम सही से हो सके। पर दुनिया के समृद्ध देशों में तो लोग 33 से 40 घंटे काम करके खुश हैं। वो इकोनॉमीज तरक्की भी कर रही हैं।
वर्क लाइफ बैलेंस की बात करें, तो इंडिया में वैसे भी ये बहुत कम है। अगर आप मेट्रो, लोकल ट्रेन या बस में ऑफिस जाने के लिए ट्रैवल करते हैं, तो आपने देखा होगा कि रोजाना ऑफिस टाइम में कितने लटके हुए चेहरे दिखते हैं। ड्रीम जॉब भी लोगों के लिए ड्रीम नहीं रह जाती है। अमेरिका जैसे विकसित देश में भी लोग 38 घंटे ही काम करते हैं। इंटरनेशनल लेवल ऑर्गेनाइजेशन के डेटा के आधार पर विकसित देशों में लोग कम घंटे काम करते हैं। लक्समबर्ग जिसे दुनिया से सबसे समृद्ध देशों में से एक माना जाता है, वहां लोग 33 घंटे प्रति हफ्ते काम करता है।
अगर वाकई 90 घंटे काम करने को लेकर लोग ज्यादा ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई ऐसे काम की जरूरत है? और अगर आप ऐसा काम करते हैं, तो आपके साथ क्या होगा?
हमने फोर्टिस हॉस्पिटल की साइकिएट्रिस्ट और हैप्पीनेस स्टूडियो की फाउंडर डॉक्टर भावना बर्मी से बात की। इसके बारे में जानना भी जरूरी है कि आप किस तरह का काम कैसे कर रहे हैं। डॉक्टर भावना के मुताबिक, 90 घंटे काम करने के बाद शरीर पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। उनका कहना है, 'बतौर साइकोलॉजिस्ट मैं ये मानती हूं कि कॉरपोरेट कल्चर में होने वाली ये समस्या ज्यादा परेशान कर सकती है। इतना काम करने का मतलब है कि आपके पास अपने लिए समय नहीं होगा। ये एक टॉक्सिक साइकिल है जो लंबे समय तक चलती रहे, तो इंसान को और परेशान कर सकती है।'
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एक हफ्ते में 168 घंटे होते हैं। इसमें से अगर आप 90 हटा दें तो बचे 78 घंटे। एक इंसान को 6 से 8 घंटे की नींद चाहिए। अगर आप एवरेज 6 घंटे भी लेकर चलें, तो हफ्ते के 42 घंटे आप सोते हैं। अब 78 में से 42 घटा दीजिए तो बचे 36 घंटे। इसमें नहाना, खाना, तैयार होना और ऑफिस आने-जाने का टाइम निकाल दें, तो दिन के कम से कम 4 घंटे तो इस सबमें निकल जाएंगे। इसका मतलब 7 दिनों के हो गए 28 घंटे। अब बचे 8 घंटे। अब पूरे हफ्ते में 8 घंटे आप या तो अपने घर वालों से बात कर लें, या फिर कहीं घूमने चले जाएं या किसी एक दो दिन एक्स्ट्रा सो लें। अब गौर कीजिए कि इस कैल्कुलेशन में कहीं भी फोन पर बात करने, एंटरटेनमेंट या रील्स देखने का समय नहीं है।
अब इतना काम करने का नतीजा डॉक्टर के हिसाब से क्या होगा?
जब आप लगातार हर हफ्ते 90 घंटे काम करेंगे, तो आपका शरीर हमेशा स्ट्रेस में रहेगा। आपको लगेगा कि इससे शरीर का नेचुरल स्ट्रेस रिस्पॉन्स सिस्टम कम हो रहा है। इससे स्ट्रेस और भी ज्यादा बढ़ता जाएगा। एक ऐसा प्वाइंट भी आ सकता है कि आपको लगे कि आप बर्नआउट हो रहे हैं। इससे इमोशनल समस्याएं भी हो सकती है और मेंटल प्रेशर जो बढ़ेगा वो तो बढ़ेगा ही। इससे आपका काम करने में मन भी नहीं लगेगा और अगर कंपनी के हिसाब से बोला जाए, तो कर्मचारियों का इंटरेस्ट और भी कम होने लगता है। ऐसे में उनकी प्रोडक्टिविटी कम होती है।
अगर कोई व्यक्ति लंबे समय तक काम कर रहा है तो उसकी कॉग्निटिव एबिलिटीज यानी सोचने-समझने की शक्ति कम होगी। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें किसी व्यक्ति की सोचने, समझने, याद रखने, निर्णय लेने, या समस्या सुलझाने जैसी मानसिक क्षमताएं कम होने लगती हैं। पहले अगर आप कोई काम एक बार में कर लेते थे, तो उसे करने में आगे और समय लगेगा। आप ज्यादा देर किसी कर्मचारी को बैठाकर उससे प्रोडक्टिविटी की उम्मीद नहीं कर सकते।
90 घंटे काम करने का मतलब है कि आपको पर्सनल काम जैसे नींद के लिए समय नहीं मिलेगा। आप हर दिन 6 घंटे सोएं ऐसा मुमकिन नहीं है। इससे ब्रेन आसानी से इमोशन्स को कंट्रोल नहीं कर पाएगा। इसमें सही तरह से प्रोसेस फॉर्मेशन भी नहीं होगा। ऐसे में एंग्जायटी, डिप्रेशन, चिड़चिड़ापन आदि बढ़ जाएगा। समझ लीजिए कि आप किसी जनरेटर को आधे फ्यूल पर चला रहे हों, बिल्कुल वैसा ही असर होगा।
इससे मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर बढ़ेंगे और पैनिक अटैक भी ज्यादा होंगे। नतीजा होगा टॉक्सिक माहौल। घर और बाहर दोनों जगह एम्प्लॉई खराब महसूस करेगा। इससे होगा यह कि वर्क लाइफ बैवेंस खत्म होता जाएगा। आप घर पर भी काम का प्रेशर ही महसूस करेंगे और रिलेशनशिप और सेल्फ केयर जैसी जरूरी चीजों को भूल जाएंगे। आप सोशल आइसोलेशन पर पहुंच जाएंगे और आपके फैमिली डायनेमिक्स अच्छे नहीं होंगे।
आपको शायद इस बात का अंदाजा ना हो, लेकिन ज्यादा घंटे काम करने से प्रोडक्टिविटी भी कम हो जाती है। इसे लेकर कई तरह की रिसर्च की गई है और डॉक्टर भावना का कहना भी है कि मैक्सिमम प्रोडक्टिविटी तभी रहती है जब आप 35 से 40 घंटे प्रति हफ्ते काम करें। ओवरवर्किंग से मानसिक और शारीरिक समस्याओं से दोचार होना पड़ता है।
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अगर आप 90 घंटे काम कर रहे हैं, तो सिर्फ मानसिक तनाव ही नहीं होगा। इससे शारीरिक समस्याएं भी बढ़ेंगी। ज्यादा देर बैठकर काम करने से स्ट्रेस लेवल बढ़ेगा। बैली फैट भी बढ़ेगा और हार्ट अटैक का रिस्क भी ज्यादा होगा। आपके ब्लड प्रेशर के लिए भी यह अच्छा नहीं है। इससे लंबे समय तक चलने वाली बीमारियां हो सकती हैं। मोटापा, बैक पेन, लाइफस्टाइल से जुड़ी समस्याएं और बहुत कुछ हो सकता है।
अगर आप इतना काम करेंगे, तो आपको बीमारियों से बचने और इम्यून सिस्टम को बेहतर करने का रिकवरी टाइम भी नहीं मिलेगा। इससे आप और दुखी महसूस करेंगे। भारत में हमेशा ओवरवर्क को नॉर्मलाइज किया जाता है। आप खुद सोचिए कि कोई इंसान कितना अपना पर्सनल टाइम दे सकता है कंपनी को?
एसएन सुब्रमण्यन ने 90 घंटे काम करने की सलाह दी, लेकिन उनकी सैलरी और एक एवरेज वर्कर की सैलरी में जमीन आसमान का फर्क था। नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट कहती है कि उनकी सैलरी 50 करोड़ से ज्यादा है। ऐसे में उनकी सैलरी एक एवरेज वर्कर की सैलरी से 500% ज्यादा होगी। ऐसे में उनके पास जो सुविधाएं हैं वो किसी आम वर्कर के पास नहीं होंगी। फिर कैसे ये उम्मीद की जा सकती है कि बिना मोटिवेशन के कोई व्यक्ति इतना लंबा काम कर ले।
यहां सिर्फ एक टॉक्सिक वर्क कल्चर की बात हो रही है। प्रोडक्टिविटी का वर्किंग हावर्स से कोई खास लेना-देना नहीं है, तो फिर क्यों इतने घंटे काम करने की बात कहते हैं लोग? दुनिया के कई देश ऐसे भी हैं, जो 4 दिन प्रति हफ्ते काम करने को लीगलाइज करने के बारे में सोच रहे हैं। ऐसे देशों में प्रोडक्टिविटी भी ज्यादा है और उनकी ग्रोथ आप देख सकते हैं। हैप्पीनेस इंडेक्स में भी भारत 126वें स्थान पर है। यानी दुनिया के 125 देशों के लोग हमसे ज्यादा खुश।
अब तो आप समझ ही गए होंगे कि इस खुशी का कारण क्या है? वैसे 90 घंटे प्रति दिन काम करने को लेकर आपकी क्या राय है? हमें कमेंट बॉक्स में बताएं। अगर आपको ये स्टोरी अच्छी लगी है, तो इसे शेयर जरूर करें। ऐसी ही अन्य स्टोरी पढ़ने के लिए जुड़ी रहें हरजिंदगी से।
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