
तिरुअनंतपुरम से एमपी डॉ. शशि थरूर ने हाल ही में लोक सभा में सेक्शुअल कंसेंट, मैरिटल रेप, सेनिटरी नैपकिन की उपलब्धताऔर महिलाओं के अबॉर्शन के अधिकार की चर्चा के लिए एक प्राइवेट बिल पेश किया। वुमन सेक्शुअल, रीप्रोडक्टिव एंड मेंस्ट्रुअल राइट्स बिल (Women’s Sexual, Reproductive and Menstrual Rights Bill 2018) के नाम से पेश हुआ ये बिल महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक अहम कदम है, लेकिन इसमें कई चीजें बेहतर होने की गुंजाइश अभी भी है।
बिल में मैरिटल रेप पर मुख्य रूप से बात की गई है और इसे अपराध घोषित किए जाने की बात कही है। भारतीय इतिहास में ऐसा पहला बार है जब शादी में रेप पर किसी राजनीतिज्ञ की तरफ से सवाल उठाए गए हैं। बिल में महिलाओं के मेंस्ट्रुअल अधिकारों को भी समग्रता से नहीं लिया गया है। बिल में महिलाओं के अबॉर्शन संबंधी अधिकार की बात तो की गई है, लेकिन देश में महिलाएं प्रजनन को लेकर जिस तरह का दबाव झेलती हैं, उस पर कोई चर्चा नहीं की गई है।
डॉ थरूर के बिल में Indian Penal Code के सेक्शन 375 के एक्सेप्शन 2 को हटाने का प्रस्ताव दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि पत्नी के साथ पति का सेक्शुअल इंटरकोर्स रेप नहीं है। पिछले कुछ सालों में ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट्स ने मैरिटल रेप के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई है, लेकिन ना तो सरकार और ना ही जुडीशियरी की तरफ से इसे अपराध की श्रेणी में लाए जाने की बात कही गई। डॉ थरूर का बिल शादीशुदा महिलाओं की शारीरिक स्वतंत्रता, सेक्शुअल राइट्स की बात करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सेक्शुअल कंसेंट सिर्फ मान ना लिया जाए बल्कि पत्नी इसके लिए स्वीकृति दे। सेक्शुअल राइट्स एक्टिविस्ट पल्लवी बर्नवाल के अनुसार मैरिटल रेप डाइवोर्स का आधार होना चाहिए और इसे क्रिमिनल एक्ट बनाए जाने की जरूरत नहीं है।

यह बिल एक तरह से महिलाओं को उनकी यौन इच्छाओं के मामले में आजादी देता है । यानी महिलाओं की इच्छा के बगैर उनके साथ संबंध बनाने की छूट नहीं होनी चाहिए। यह इस बात की ओर संकेत करता है कि महिला का ना मतबल ना है और हां मतलब हां, जिसमें महिला पुरुष की यौन इच्छाओं के सामने मौन स्वीकृति देने के बजाय अपनी यौन इच्छाओं के बारे में खुलकर कहे। हालांकि यह अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन यहां महिलाओं की ना को वैध बनाए जाने की जरूरत है, ताकि महिला के राजी ना होने या कमजोर तरीके से ना कहे जाने पर उसकी वैधता पर सवाल ना उठाए जाएं।
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बिल में 'मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971' का नाम बदलकर लीगल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट कर देने की बात कही गई है। इससे गांव-देहात के डॉक्टरों को सेक्शन 312 के तहत अरेस्ट किए जाने का डर नहीं सताएगा। इस सेक्शन के तहत महिला सहित उन लोगों को दंडित किया जा सकता है, जो ऐच्छिक मिसकैरिज में भागीदार होते हैं।
इस बिल में सभी महिलाओं को 12वें हफ्ते तक प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करने का अधिकार दिए जाने की बात कही गई हैं, लेकिन फीमेल फीटीसाइड (कन्या भ्रूण हत्या) के मामलों में ऐसी छूट नही होगी)। इसमें महिलाओं की हेल्थ, जीवन को खतरे, चोट या भ्रूण में किसी तरह की एबनॉर्मलिटी होने की स्थिति में महिलाओं को इस तरह से प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करने की स्वतंत्रता दी जाने की बात कही गई है।
इस बिल का दायरा बढ़ाए जाने की जरूरत है। इसमें रीप्रोडक्टिव कोअर्जन को भी लाए जाने की जरूरत है, क्योंकि इसी से महिलाओं पर फोर्स्ड प्रेग्नेंसी और अबॉर्शन का दबाव आता है। रीप्रोडक्टिव कोअर्शन में पार्टनर की बर्थ कंट्रोल पिल्स को छिपाना, नष्ट करना, रिंग या आईयूडी हटवाने जैसी चीजें शामिल हैं। कुछ मामलों में पार्टनर संबंध बनाते हुए गर्भनिरोध के उन तरीकों को नहीं अपनाते, जिन पर पहले से सहमति बनी थी।

डॉ थरूर के बिल में महिलाओं को मेंस्ट्रुअल राइट्स देने की बात भी कही गई है। इसके तहत स्कूल और पब्लिक अथॉरिटीज की तरफ से मुफ्त सैनिटरी पैड दिए जाने का प्रस्ताव किया गया है। बिल में महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन की उपलब्धता की अहमियत को रोजमर्रा की जिंदगी पानी की जरूरत से जोड़कर देखा गया है, ताकि इससे जुड़ी सोच को बदला जा सके। साथ ही बिल में मेंस्ट्रुएशन के समय में महिलाओं को अछूत माने जाने मानसिकता को भी बदलने की बात कही गई है और इसके लिए पहल करने की जरूरत पर बल दिया गया है।
वुमन राइट्स एक्टिविस्ट रंजना कुमारी का कहना है, 'पेरेंट्स को चाहिए कि वे बच्चियों से प्यूबर्टी, टीनेट में शरीर में आने वाले बदलावों पर बात करनी चाहिए।'
हालांकि बिल में महिलाओं की सेक्शुअल ऑटोनॉमी, मेंस्ट्रुअल राइट्स, अबॉर्शन राइट्स पर अच्छे प्रस्ताव रखे गए हैं, लेकिन अगर हम वाकई देश की महिलाओं को सशक्त करना चाहते हैं तो इस बिल से जुड़े प्रोविशन व्यापक तौर पर लागू किए जाने चाहिए, ताकि यह कुछ विशिष्ट तबके की महिलाओं तक सीमित रहने के बजाय हर तबके की महिलाओं तक इसका फायदा पहुंचे।
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