कुछ कहानियां दिल चीर देती हैं। कुछ सच्चाइयां हमारे समाज की खोखली संवेदनाओं की पोल खोल देती हैं। हिमांशी नरवाल की कहानी, मेरी नजरों में, आज के भारत की सबसे बड़ी त्रासदी नहीं, बल्कि सबसे बड़ी बेइमानी है। एक महिला के दर्द को हथियार बनाकर उसे ही कटघरे में खड़ा करने की बेइमानी।
पीड़ा यह है कि समय-समय पर औरत अक्सर समाज के कटघरे में खड़ी होती आई है। बस हर बार नाम अलग हुए... पहचान अलग हुई।
हिमांशी वह महिला है, जिसने पहलगाम में हुए एक आतंकी हमले में अपने पति को खो दिया था। 22 अप्रैल को आतंकवादियों ने पहलगाम में 26 लोगों को गोलियों का निशाना बनाया था।
इस हमले में हिमांशी नरवाल ने पति विनय नरवाल को भी गंवाया। शादी को महीना भी नहीं हुआ था और पलक झपकते ही उनकी मांग का सिंदूर उजड़ गया था। जैसे ही यह खबर आई, समाज की सोशल मीडिया सेना उनके समर्थन में टूट पड़ी-कोई उन्हें 'भारत की बेटी' कहने लगा, कोई 'वीर नारी, तो किसी ने उनकी एनिमेटेड तस्वीर को अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल किया। जल्द ही इस वीर नारी के लिए न्याय की मांग होने लगी।
लेकिन ये समर्थन असली नहीं था, ये एम्पेथी नहीं एक तमाशा था। जैसे ही हिमांशी ने खुद बोलने की हिम्मत की, जैसे ही उन्होंने शांति की मांग कि उसी पल सारा प्यार, सारी सहानुभूति घृणा में बदल गई।
अब वही हिमांशी एक ‘एंटी-नेशनल’ बन गई हैं। लोग अब उनके चरित्र पर सवाल उठा रहे हैं। उनकी पीड़ा पर अब भद्दी टिप्पणियां हो रही हैं। इन सब में जो लोग चुप हैं, उन्होंने इस हिंसा को मौन स्वीकृति दे दी है।
आखिर क्या है हिमांशी की सबसे बड़ी गलती?
हिमांशी ने गलती शायद यही है कि उन्होंने अपने पति की मौत को नफरत फैलाने का औजार बनने से मना कर दिया। उन्होंने मीडिया को दिए बयान में कहा था, "हम नहीं चाहते कि लोग मुसलमानों और कश्मीरियों के पीछे पड़ें। हम शांति और न्याय चाहते हैं। जिन लोगों ने गलत किया है, उन्हें सजा मिलनी चाहिए।"
हिमांशी को पता है कि बदले की भावना से उनके पति वापस नहीं आएंगे, इसलिए उन्होंने समझदार इंसान की तरह इंसाफ मांगा...शांति की मांग की। ऐसे में एक महिला को कैसे गालियां दी जा सकती हैं?
जिस तरह के कमेंट्स हिमांशी को मिल रहे हैं, जैसे ट्रोल उन्हें किया जा रहा है वह देखकर सवाल उठता है कि क्या वाकई हम इतने असहिष्णु हो चुके हैं कि अब शांति मांगने वाली एक महिला हमें खलनायक लगने लगी है?
औरतों को इस देश में दो ही रूपों में देखा जाता है- वो देवी हो सकती है या फिर चरित्रहीन। इसके बीच में जो भी है, वह समाज के लिए खतरा बन जाता है। हिमांशी ने वही बीच का रास्ता चुना। उन्होंने सच्चाई को चुना और उसी के लिए उन्हें ब्लेम किया जा रहा है।
हिमांशी पलभर में बन गई विक्टिम से दगाबाज
हिमांशी ने जिस बहादुरी के साथ अपनी बात रखी,वह ट्रोलर्स से देखा नहीं गया और इसलिए हिमांशी को अब डिजिटली गालियां दी जा रही हैं। ट्रोल्स ने उनके चरित्र को तार-तार करना शुरू कर दिया। किसी ने कहा, "जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की पढ़ी हुई है, सब एजेंडा है", किसी ने पूछा, "क्या ऐसी औरत को 2 करोड़, सरकारी नौकरी और पेंशन मिलनी चाहिए?"
किसी ने उनकी कॉलेज की पढ़ाई, उसके पहनावे, यहां तक कि यह भी सवाल किया कि वह विधवा होने के एक हफ्ते के भीतर कैसे 'इतनी मजबूत' होकर बोल सकती है। लोगों ने उनके अतीत को उधेड़ना शुरू कर दिया। ऐसे में सवाल उठकता है कि क्या दर्द की कोई तय समय-सीमा होती है? क्या एक विधवा के अधिकार उसके विचारों पर निर्भर होने चाहिए? क्या सिर्फ चुप और टूट चुकी औरतें ही हमारी सहानुभूति की पात्र होती हैं?
आज सोशल मीडिया पर जो हो रहा है, वह कोई आम ट्रोलिंग नहीं, ये डिजिटल ‘विच हंट’ है। एक महिला की आवाज, शिक्षा, उनकी सोच, सबको देशद्रोह, एजेंडा और साजिश कहा जा रहा है। और यह सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने नफरत का साथ नहीं दिया।
एक महिला अपनी राय रखकर करती है समाज को असहज
जब कोई महिला दुख के खांचे से बाहर निकलकर सवाल पूछती है, न्याय की मांग करती है या अपनी स्वतंत्र राय रखती है, तो वह अक्सर समाज को असहज कर देती है। एक्सपर्ट भी कहते हैं कि एक महिला पर ब्लेम मढ़ देना सबसे असाना लगता है, क्योंकि समाज की दृष्टि में वह कमजोर मानी जाती है।
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. भावना बर्मी कहती हैं, "महिलाओं से आज भी यही अपेक्षा होती है कि वे चुप रहें, सहन करें और दूसरों की भावनाओं के अनुसार चलें। जैसे ही कोई महिला उस रेखा को लांघती है, लोग उसे कंट्रोल करने के लिए उसे दोषी ठहराते हैं। यह एक तरह का कलेक्टिव साइकोलॉजिकल रिएक्शन है, जिसमें लोग अपने भीतर की असुरक्षा और सत्ता की लालसा को ‘मॉरल जजमेंट’ के रूप में दिखाते हैं।"
महिला आयोग ने किया हिमांशी का सपोर्ट
इन लोगों के बीच ऐसे लोग भी हालांकि शामिल हैं, जिन्होंने हिमांशी का सपोर्ट किया है। ऐसे में राष्ट्रीय महिला आयोग भी सामने आया और उन्होंने सोशल मीडिया पर पर पोस्ट किया।
आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा, "किसी महिला को उसकी विचारधारा या व्यक्तिगत जीवन के लिए इस तरह निशाना बनाना पूरी तरह अस्वीकार्य है।" साथ ही उन्होंने यह भी माना कि देश पहलगाम की त्रासदी से आहत और क्रोधित है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक महिला को इस तरह से ट्रोल किया जाए।
जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले में देश के अनेक नागरिकों की हत्या कर दी गई थी। इस हमले में अन्य लोगों के साथ लेफ्टिनेंट विनय नरवाल जी से उनका धर्म पूछकर उन्हें गोली मार दी गई थी। इस आतंकी हमले से पूरा देश आहत व क्रोधित है।
— NCW (@NCWIndia) May 4, 2025
लेफ्टिनेंट विनय नरवाल जी की मृत्यु के पश्चात…
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क्या महिला की चुप्पी ही सहानुभूति का पात्र होती है?
हम बार-बार यह भूल जाते हैं कि हिमांशी इस देश के एक वीर सैनिक की पत्नी थीं। वह महिला जिसने एक भरी दोपहरी में अपने जीवनसाथी को खो दिया। उस पल की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता सिवाय उसके, जिसने वह दिन देखा है।
अब जब वह अपने तरीके से उस गम से जूझ रही है, जब वह नफरत और हिंसा के खिलाफ आवाज उठा रही है, तो क्या हमें उसके साथ खड़ा नहीं होना चाहिए?
अगर आप आज उनका मजाक उड़ा रहे हैं, तो खुद से पूछिए कि क्या आपकी हमदर्दी असली थी?
इस दौर में, जहां शांति ही सबसे बड़ा अपराध बन चुका है, हिमांशी जैसी महिलाओं का खड़ा रहना, बोलना, सबसे बड़ा साहस है।
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