महिलाओं के लिए आज क्यों रोड सेफ्टी बन गई है Gender Equality की नई चुनौती?

एक महिला के लिए सड़क पर निकलना बिल्कुल भी सेफ नहीं है। उसके लिए रोड सेफ्टी एक बड़ी चुनौती है। यह जेंडर इक्वालिटी का ऐसा मुद्दा है जिस पर चर्चा होनी बेहद जरूरी है। 
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जब हम जेंडर इक्वालिटी की बात करते हैं, तो ज्यादातर लोग पे गैप, नेतृत्व की भूमिकाओं में प्रतिनिधित्व या शिक्षा तक पहुंच के बारे में ही सोचते हैं। हालांकि, ऐसा नहीं है कि ये महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं हैं मगर लैंगिक समानता का एक और पहलू है जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है और वह सड़क सुरक्षा है।

वहीं, जब हम सड़क सुरक्षा के बारे में बात करते हैं, तो हम अक्सर सड़क दुर्घटनाओं, स्पीड और बुनियादी ढांचे की खामियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। मगर यह बात कोई समझने के लिए शायद तैयार नहीं है कि महिलाओं के लिए, सड़क सुरक्षा इन खतरों से कहीं ज्यादा है।

महिलाओं को सड़क पर कई जोखिमों का सामना करना पड़ता है, न केवल लापरवाह ड्राइवरों से बल्कि सार्वजनिक स्थानों पर अटैकर्स से बच-बचाकर चलना पड़ता है।

सड़कों पर महिलाओं की सुरक्षा हमेशा से एक मुद्दा रहा है। लैंगिक समानता के बारे में शोर-शराबे के बावजूद, हम एक बड़े मामूली फैक्ट को अनदेखा कर देते हैं। पुरुष और महिलाएं सार्वजनिक स्थानों का अलग-अलग तरीके से उपयोग करते हैं।

पुरुषों को उनके मूड और सनक के अनुसार अलग-अलग गति से चलते हुए, इधर-उधर टहलते हुए पाया जा सकता है। वे संकरी गलियों और सड़कों के गंदे कोनों पर, ताश खेलते हुए या किसी स्टॉल के पास बैठकर चाय की चुस्की लेते और गपशप करते हुए पाए जाते हैं।

वहीं, महिलाएं सड़कों और फुटपाथों पर एकदम अलग लगती हैं। वे सार्वजनिक स्थान पर तभी निकलती हैं जब उनके पास कोई ठोस कारण होता है। वे आमतौर पर कहीं पहुंचने की जल्दी में होती हैं। अक्सर उनकी नजरें इधर-उधर दौड़ रही होती हैं।

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महिलाओं को हर कदम पर उठाने पड़ते हैं जोखिम

सड़क सुरक्षा को जब लैंगिक दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो पुरुषों और महिलाओं के जीवन के अनुभवों में बहुत बड़ा अंतर देखने को मिलता है। जैसा कि हमने बताया कि दोनों के लिए सड़क पर चलना कितना अलग होता है।

महिलाओं के लिए सड़कों पर चलना एक बड़े जोखिम को मोल लेने जितना हो सकता है। घर से बाहर निकलने पर उन्हें घूरती नजरों का डर बना रहता है, जिसका सामना आमतौर पर पुरुषों को नहीं करना पड़ता। काम पर जाने या सिर्फ दुकान पर जाने तक के लिए उसे सांसों को थामकर चलना पड़ता है।

ईव-टीजिंग, वर्बल या फिजिकल हैरासमेंट जैसी घटनाएं तो अक्सर ही होती रहती हैं। ये हरकतें न केवल महिलाओं के लिए अपमानजनक हैं, बल्कि यह भी याद दिलाता है कि पब्लिक प्लेस उसके लिए कितनी असुरक्षित हैं।

अकेले चलने वाली या सार्वजनिक परिवहन लेने वाली हर लड़की अपने दिन की शुरुआत भले ही कितने आत्मविश्वास से करे, लेकिन दिन के अंत तक वह खुद को डर और चिंता से भरे माहौल में पाती है। उसे हर कदम पर छुआ जाने, पीछा किए जाने या इससे भी बदतर होने का खतरा मंडराता रहता है।

80% से अधिक महिलाएं सड़कों पर होती हैं हैरास

विश्व बैंक ने साल 2022 में एक रिसर्च रिपोर्ट बनाई थी जिसमें कई चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए थे। भारतीय शहरों से प्राप्त एविडेंस से यह पता चला था कि सार्वजनिक परिवहन और सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के मामले बहुत होते हैं, लेकिन इसकी रिपोर्टिंग कम होती है।

  • दिल्ली में सर्वेक्षण की गई 88% महिलाओं ने यौन उत्पीड़न का सामना किया, लेकिन केवल 1% ने पुलिस को इसकी सूचना दी।
  • चेन्नई में आधे से ज्यादा महिलाओं ने यौन उत्पीड़न की शिकायत की, लेकिन केवल 6% ने पुलिस को सूचित किया।
  • पुणे में 63% महिलाओं ने बस में यौन उत्पीड़न का सामना किया, लेकिन केवल 12% ने पुलिस को इसकी सूचना दी।
  • मुंबई में उत्पीड़न का सामना करने वाली 2% महिला यात्रियों ने पुलिस से संपर्क किया, लेकिन इस पर कार्रवाई नहीं हुई।
  • वहीं, मुंबई में 75% महिला रेल यात्री महिला हेल्पलाइन नंबर से अनजान हैं।

इस सर्वे के दौरान जब महिलाओं से बात की गई थी, तो उनका कहना था कि वे कोई विवाद नहीं खड़ा करना चाहती थीं, इसलिए उन लोगों ने कभी ऐसे यौन उत्पीड़ने की शिकायत नहीं की। इसके साथ ही, जागरूकता की कमी, अपराधियों से प्रतिशोध का डर, सामाजिक कलंक और पीड़ित को दोषी ठहराए जाने का डर भी उन सामान्य कारणों में से हैं जो रिपोर्ट करने से रोकते हैं।

इमोशनली और मेंटली नुकसान पहुंचाती है रोड सेफ्टी

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लगातार डर और चिंता महिलाओं के सार्वजनिक जीवन के साथ संबंधों को आकार देते हैं। जो एक लड़की के लिए आसान और फन ट्रैवल होना चाहिए, वह सतर्कता में थका देने वाली कसरत में बदल जाती है। किसी भी तरह के उत्पीड़न का अनुभव मानसिक रूप से थका देता है। इसके कारण स्वतंत्रता, आत्मविश्वास और सुरक्षा की भावना खत्म हो जाती है।

इसका भले ही कोई तत्काल इमोशनल प्रभाव न दिखे, लेकिन एक लड़की फिर यात्रा करने से और पब्लिक लाइफ में किसी भी तरह की भागीदारी लेने से कतराती है। कई मामलों में, लड़कियां उत्पीड़न की संभावना से बचने के लिए सामाजिक या मनोरंजक गतिविधियों में भाग लेने से पूरी तरह से बचती हैं, जिससे यह आइडिया स्ट्रॉन्ग हो जाता है कि शायद इस तरह की गतिविधियां उनके लिए हैं ही नहीं।

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जेंडर सेंसिटिव अर्बन प्लानिंग की है जरूरत

यह तभी मुमकिन है जब हम परिवहन प्रणालियों को देखने के तरीके में बदलाव करें। हमें जरूरत जेंडर सेंसिटिव अर्बन प्लानिंग की, जो शहरों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।

महिलाओं की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिए सार्वजनिक परिवहन में निगरानी और मॉनीटरिंग अधिकारियों की पहुंच को बढ़ाया जाना चाहिए। बेहतर रिपोर्टिंग मेकेनिज्म और स्विफ्ट लीगल एक्शन जैसे इंटरवेंशन महिलाओं को आगे आने और अपराधियों को जवाबदेह ठहराने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। ये तरीके यौन उत्पीड़न के मामले कम कर सकते हैं।

सड़क सुरक्षा एक बुनियादी मानव अधिकार है। महिलाओं के लिए, सड़क अक्सर अत्यधिक असुरक्षित होती है, जहां उन्हें हर पर एक डर से गुजरना पड़ता है। यह उनकी स्वतंत्रता को उनसे छीनता है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इसे केवल दुर्घटनाओं और बुनियादी ढांचे तक सीमित नहीं किया जा सकता है।

इसमें महिलाओं के सामने आने वाले सामाजिक और मनोवैज्ञानिक खतरों को भी ध्यान में रखना चाहिए। महिलाएं स्वतंत्रता और बिना किसी डर से ट्रैवल कर सकें यह जेंडर इक्वालिटी पाने की दिशा में एक बुनियादी कदम है।


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Image credit: Freepik

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