ब्रिटिश रॉयल फैमिली दुनिया की सबसे चर्चित रॉयल फैमिली में से एक है। चाहे उसके सदस्यों की बात हो या फिर राज महल की ब्रिटेन के शाही परिवार का नाता हमेशा किसी न किसी कॉन्ट्रोवर्सी या फिर ऐतिहासिक घटना से जोड़ा जाता है। एक तरह से देखा जाए तो ब्रिटिश रॉयल क्राउन हमेशा से ही अपने उसूलों को लेकर विवादों के घेरे में भी रहा है। प्रिंसेज डायना से लेकर मेघन मार्कल तक कुछ अलग ख्यालों वाली महिलाओं से जुड़ी कॉन्ट्रोवर्सी भी हमेशा होती रहती हैं।
एक तरह से देखा जाए तो ब्रिटिश राजघराने में रंगभेद के कई उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि एक भारतीय राजकुमारी को इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने एक भारतीय राजकुमारी को गोद लिया था।
इस राजकुमारी को अपना नाम भी दिया था और उसके बाद उस राजकुमारी का क्या हुआ ये भी सोचने वाली बात है।
कौन हैं प्रिंसेस विक्टोरिया गौरम्मा?
प्रिंसेस विक्टोरिया गौरम्मा असल में कुर्ग (कोडागू) के आखिरी राजा चिकाविरा राजेंद्र की बेटी थीं। उन्हें रानी विक्टोरिया ने गोद ले लिया था और इनकी कहानी किसी फेयरी टेल जैसी बिल्कुल नहीं थी। अगर आपको मेघन मार्कल के केस से कुछ देखा जा सकता है तो वो ये कि ब्रिटिश रॉयल फैमिली में रंगभेद का असर काफी गहरा है और ऐसे में आप सोच सकते हैं कि विक्टोरिया गौरम्मा का क्या हुआ होगा।
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कैसे गौरम्मा बनी विक्टोरिया गौरम्मा?
24 अप्रैल 1834 में कुर्ग युद्ध हारने के बाद महाराज चिकाविरा राजेंद्र को ईस्ट इंडिया कंपनी का बंदी बना लिया गया था। इसके बाद ये राज्य ब्रिटिश सरकार के अधीन हो गया था। राजा को युद्ध का कैदी बना दिया गया था और वो बनारस में कैद में थे। इसके बाद अपनी 11 साल की बेटी गौरम्मा के साथ लंदन पहुंचे। वो उन चुनिंदा भारतीयों में से एक थे जिन्होंने सबसे पहले लंदन में कदम रखा था। उनके साथ थे उनके अच्छे दोस्त डॉक्टर विलियम जेफर्सन। राजा चिकाविरा ने अपनी पुश्तैनी संपत्ति के लिए अंग्रेजी सरकार से गुहार लगाई और मांग की कि अगर वो ईसाई धर्म अपना लेते हैं तो उनका और उनकी बेटी का भविष्य सुरक्षित हो जाए।
राजा के दोस्त विलियम जेफरसन ने कहा कि पहले गौरम्मा के भविष्य की चिंता की जाए और फिर संपत्ति का केस लड़ा जाए।
प्रिंसेस गोवरम्मा का जन्म तब हुआ था जब राजा पहले से ही बनारस में कैदी बने हुए थे और जन्म के दो दिन बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था। ऐसे में गौरम्मा न सिर्फ एक राजनीतिक कैदी की बेटी थीं बल्कि उनकी मां भी इस दुनिया में नहीं थीं।
इन्हीं सब कारणों से राजा ने अपनी बेटी के भविष्य के लिए ईसाई धर्म अपनाने का फैसला किया। ब्रिटिश अखबार में इसको लेकर खबर भी छपी थी कि किस तरह से ईसाई धर्म की सच्चाई को जानने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ा गया है।
कई रिपोर्ट्स में गौरम्मा के रंग को लेकर भी काफी सारी बातें कही गईं। एक ऐसी ही रिपोर्ट में उन्हें 'कबूतरों के बीच कव्वा' कहा गया, हालांकि रिपोर्ट्स कहती हैं कि गौरम्मा का गोरा रंग उन्हें राजा के बाकी बच्चों से अलग बनाता था और इसलिए क्वीन विक्टोरिया ने उन्हें गोद लिया था। क्योंकि ये पहले से ही बहुत ज्यादा चर्चित मामला बन गया था इसलिए क्वीन विक्टोरिया ने गौरम्मा को गोद लेने का फैसला लिया और फिर अपना नाम भी दिया। गौरम्मा के बैप्टिज्म की रस्म को काफी जोर-शोर से पूरा किया गया और इसके बाद वो बनीं प्रिंसेज विक्टोरिया गौरम्मा।
प्रिंसेस विक्टोरिया गौरम्मा के बारे में आप सी.पी.बेल्लीअप्पा की नॉवल 'Victoria Gowramma: The Lost Princess of Coorg' में पढ़ सकते हैं।
गौरम्मा की वो कहानी जिसका अंत था दुखद
कहते हैं कि अगर एक पेड़ को किसी जगह से उखाड़ कर ऐसे माहौल में लगा दिया जाए जहां उसके लिए सही मौसम न हो तो उसे कोई नहीं बचा सकता और ऐसा ही इंसानों के साथ भी होता आया है। किसी नए देश और नए कल्चर में रमना आसान नहीं होता है, लेकिन गौरम्मा ने इसे करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। गौरम्मा को एक रिटायर्ड मिलिट्री कपल की देख-रेख में बड़ा किया गया और उन्होंने सारे तौर-तरीके सीखे। पर उन्हें हमेशा एक बाहरी का रोल अदा करना पड़ा। गौरम्मा के लिए कहा जाता है कि बड़े होते-होते रानी ने उन्हें महाराजा दिलीप सिंह के साथ जोड़ने की कोशिश की।
हालांकि, ऐसा हो न सका क्योंकि ये दोनों ही एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे। दिलीप सिंह भी देश निकाला के कारण ब्रिटेन में थे और ईसाई बन चुके थे (हालांकि, बाद में उन्होंने वापस सिख धर्म अपना लिया), गौरम्मा दिलीप की जगह 50 साल के एक्स-आर्मी अफसर कोलोनल जॉन कैम्पबेल के प्यार में पड़ गईं और उससे शादी भी की।
हालांकि, जॉन को सिर्फ गौरम्मा के साथ आने वाली दौलत का ही लालच था। शादी के कुछ समय बाद ही गौरम्मा को ये समझ आ गया था कि असल में उनकी शादी एक छलावा मात्र थी। कैम्पबेल दिन-रात जुएं और शराब में डूबे रहते थे।
गौरम्मा को जानने वाले देखते थे कि वो बार-बार खांसती रहती थीं और उसके साथ खून भी निकलता था। उनकी सोशल लाइफ काफी चर्चित थी, लेकिन गौरम्मा खुद में बहुत अकेली हो गई थीं। रॉयल नाम और टाइटल होने के बाद भी उन्हें अपना नहीं माना गया था।
किताब में लिखा हुआ है कि उन्हें उनके अपने पिता से मिलने की इजाजत नहीं थी क्योंकि क्वीन विक्टोरिया को लगता था कि वो गौरम्मा को अपने धर्म की ओर आकर्षित कर लेंगे।
1861 में अपनी बेटी ईडिथ को जन्म देने के बाद गौरम्मा को सिंगल मदर जैसा महसूस होता था क्योंकि उनके पति तो हमेशा जुएं में डूबे रहते थे।
1863 में टीबी के कारण उनकी मृत्यु हो गई थी और उस समय गौरम्मा सिर्फ 23 साल की थीं।
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कहां मिलेगी गौरम्मा के बारे में पूरी जानकारी?
बेल्लीअप्पा ने किताब के साथ-साथ प्रिंसेस विक्टोरिया गौरम्मा पर कई आर्टिकल भी लिखे हैं और उनकी रिसर्च के जरिए ही ये बात सामने आई थी कि असल में गौरम्मा के बच्चे भी थे।
क्वीन विक्टोरिया अपने समय में इस बात के लिए प्रसिद्ध थीं कि वो अपने बच्चों और नाती-पोतों को यूरोप और पूरी दुनिया के अलग-अलग राज घरानों से जोड़ती हैं जिसके कारण ब्रिटिश साम्राज्य की पकड़ हर जगह इतनी मजबूत होती गई।
सिर्फ भारत से ही नहीं बल्कि क्वीन विक्टोरिया ने अपने समय में कई देशों के बच्चों को गोद लिया था।
ये थी कहानी गौरम्मा की जिन्होंने अपनी छोटी सी जिंदगी भी बहुत दबाव में आकर जी। आप उनके बारे में ज्यादा जानकारी बेल्लीअप्पा की किताब से पढ़ सकते हैं।
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