
रविवार का दिन था। ससुराल से अचानक फोन आया कि बाबा ससुर का निधन हो गया है। खबर सुनते ही हम दोनों पति-पत्नी बिना देर किए दिल्ली से कानपुर के लिए बस से निकल पड़े। बस अच्छी थी और हमें आराम से सीट भी मिल गई।
बस में काफी सीटें खाली थीं, इसलिए पति ने सुझाव दिया कि वे मेरी अगली सीट पर बैठ जाएंगे, ताकि मैं एक पूरी सीट पर लेटकर आराम कर सकूं। बस स्टैंड से निकलने के लगभग 15 मिनट बाद ही बस की लाइट बंद कर दी गई। जनवरी की ठंडी, कोहरे से भरी रात थी। खिड़की के बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था और बस के अंदर भी घुप अंधेरा छा गया था।
हम दोनों गहरे दुख में डूबे हुए थे। मैं सीट पर लेटी हुई हल्की नींद में चली गई। बस के बाकी यात्री भी सो चुके थे। मैं बाबा ससुर के साथ बिताए कुछ स्नेहभरे पलों को याद कर रही थी, तभी कुछ अजीब-सा महसूस हुआ, जैसे मेरे शरीर पर कोई चीज रेंग रही हो।
नींद में होने की वजह से मैंने इसे नजरअंदाज किया और करवट बदल ली। कभी पेट के बल, कभी पीठ के बल, कई बार करवट बदलने के बाद भी वह एहसास खत्म नहीं हुआ। मन में शक पैदा हुआ कि कहीं कोई कीड़ा या सांप तो नहीं है। डर के मारे मैंने मोबाइल की हल्की रोशनी में सीट टटोलकर देखा, लेकिन कुछ नजर नहीं आया।

मैं फिर से लेट गई, मगर अब मन बेचैन था। थोड़ी ही देर में वही एहसास दोबारा हुआ। इस बार मैं तुरंत उठ बैठी। मुझे लगा कि मेरे ठीक पीछे वाली सीट पर बैठा व्यक्ति मेरे उठते ही हिला-डुला। मुझे शक हुआ कि कहीं वह मुझे जानबूझकर छूने की कोशिश तो नहीं कर रहा। हालांकि यह समझ पाना मुश्किल था कि सीट की ऊंची बैक के बावजूद उसका हाथ मेरी कमर और पीठ तक कैसे पहुंच रहा है।
मैंने आगे बैठे अपने पति को सारी बात बताई। उन्होंने कहा, "तुम्हारा वहम होगा, जाकर सो जाओ।" उनके भरोसे से मैं वापस अपनी सीट पर जाकर लेट गई।
इस बार मैं पूरी तरह सतर्क थी। लेटते ही कुछ ही देर में मुझे फिर वही हरकत महसूस हुई। इस बार मैंने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया, जो सीट और बैक के बीच की खाली जगह से अंदर आकर मुझे छू रहा था। मैंने उसकी उंगली कसकर पकड़ी, लेकिन उसने झटके से हाथ छुड़ा लिया।

अब मेरा गुस्सा चरम पर था। मैंने फिर से पति को बताया। उन्होंने कहा, "अगर दिक्कत है तो मेरी सीट पर आकर बैठ जाओ।" लेकिन इस बार मामला सिर्फ असहजता का नहीं, मेरे आत्मसम्मान का था।
मैंने बिना कुछ सोचे-समझे पीछे मुड़कर उस आदमी पर हमला कर दिया। अंधेरे में ही उसे मारना शुरू कर दिया। मेरी आवाज सुनते ही वह चिल्लाने लगा। ड्राइवर ने तुरंत बस रोक दी और लाइट जला दी।
अब सब कुछ साफ दिखाई दे रहा था। मेरे पति को भी यकीन हो गया कि मैं सच कह रही थी। उन्होंने भी उस आदमी की जमकर पिटाई की। रोशनी में उसका चेहरा देखकर हैरानी और गुस्सा दोनों हो रहा था। वह देखने में पढ़ा-लिखा, अच्छे घर का और किसी अच्छी कंपनी में काम करने वाला लगता था।

यह सोचकर मन कांप उठा कि हमारे देश का युवा भविष्य इतना गिर सकता है कि पति के सामने भी एक शादीशुदा महिला के साथ ऐसी घिनौनी हरकत कर सके।
बस ड्राइवर और अन्य यात्रियों के कहने पर हमने मामला ज्यादा न बढ़ाते हुए उसी जगह उस युवक को बस से नीचे उतार दिया। इसके बाद बस आगे बढ़ गई, लेकिन वह घटना मेरे मन में लंबे समय तक डर और आक्रोश छोड़ गई।

यह कहानी है कानपुर निवासी राधा गुप्ता की। राधा की तरह न जाने कितनी महिलाएं कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में तो कभी राह चलते मंचलों के सेक्शुअल हैरेसमेंट का शिकार होती हैं। हांलाकि, सभी राधा की तरह आवाज नहीं उठा पाती हैं। कुछ की आवाज दबा दी जाती है, तो कुछ खुद ही लोक लाज के चलते कुछ नहीं बोलती हैं। मगर राधा ने हिम्मत दिखाई और फाइट बैक किया।
ऐसी घटनाएं हमें यह सिखाती हैं कि गलत के खिलाफ आवाज उठाना बेहद जरूरी है। डरने या चुप रहने से अपराधी और हौसला पाते हैं। सही समय पर विरोध करना, मदद मांगना और खुद के सम्मान के लिए खड़े होना ही सबसे बड़ी ताकत है। अपने आत्मसम्मान के लिए राधा ने जो कदम उठाया वैसे ही हौसला सभी महिलाओं को दिखाना चाहिए।
यह घटना केवल एक महिला की आपबीती नहीं, बल्कि समाज में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़ी एक गंभीर सच्चाई को उजागर करती है। पब्लिक ट्रांस्पोर्ट जैसे स्थानों पर भी महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस करने को मजबूर हैं। राधा ने साहस दिखाकर न सिर्फ अपने आत्मसम्मान की रक्षा की, बल्कि यह संदेश भी दिया कि गलत के खिलाफ चुप रहना समाधान नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में सतर्क रहना, अपनी आवाज उठाना और तुरंत मदद लेना बेहद जरूरी है। आपकी भी कोई आप-बीती है, तो हमसे anuradha.gupta@jagrannewmedia पर शेयर करें।
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