होली मुख्य रूप से रंगों का त्यौहार है। इस दिन लोग सभी लड़ाई झगड़ों को छोड़कर आपस में रंग खेलते हैं और प्यार में सराबोर हो जाते हैं। लेकिन भारत में कुछ ऐसी भी जगहें हैं जहां होली का जश्न, आम रंगों का न होकर कुछ ख़ास होता है। कुछ विशेष और विचित्र रूप से मनाई जाती है होली।
आप सभी ने बरसाने की लठमार होली के बारे में जरूर सुना होगा, जिसमें रंगों के साथ महिलाएं, पुरुषों पर लाठी बरसाती हैं। एक ऐसी ही विचित्र होली मनाई जाती है वाराणसी के मणिकर्णिका घाट में, जहां होली रंगों से नहीं, बल्कि चिताओं की भस्म से खेली जाती है। जी हां, आपको सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लगेगा लेकिन ये सच्चाई है। आइए जानें भस्म की होली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान् शिव और पार्वती जी के विवाहोपरांत फाल्गुन की एकादशी के दिन ही देवी पार्वती का गौना हुआ था और वो शिव जी के साथ उनकी नगरी में आई थीं। इस ख़ुशी को प्रकट करने के लिए भगवान शिव की नगरी कशी में आज भी आमलकी एकादशी के दिन जश्न मनाया जाता है। इस अवसर की खुशी प्रकट करते हुए काशी की गलियों में बाबा की पालकी निकाली जाती है और चारों ओर रंग का माहौल होता है, लेकिन इसके अगले ही दिन रंग भरा नज़ारा बिलकुल बदल जाता है।
भगवान् शिव को श्मशान का देवता भी माना जाता है। कहा जाता है कि शिव ही सृष्टि के संचालक हैं और संघारक भी हैं। इसी वजह से श्मशान में भगवान् शिव की प्रतिमा अवश्य स्थापित की जाती है। शिव को समर्पित पूरी कशी नगरी में एकादशी के अगले ही दिन चिता की भस्म की होली खेली जाती है। यह बात वास्तव में काफी अजीब लगती है सुनने में काफी अजीब लगता है लेकिन पैराणिक मान्यता है कि भगवान् शिव के औघड़ रूप को दिखाने के लिए ही काशी के मणिकर्णिका घाट में चिता की भस्म का उपयोग होली के रंगों की तरह किया जाता है। लोग चिटा की भस्म को एक-दूसरे पर लगाते हैं और हर तरफ ‘हर हर महादेव’ और डमरुओं की आवाज से पूरा दृश्य अनोखा प्रतीत होता है। यह दृश्य प्रति वर्ष होली के त्यौहार के दौरान काशी में देखने को मिलता है।
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लोगों की मान्यता है कि इस दिन स्वयं भगवान् शिव होली का जश्न मनाने काशी आते हैं और चिता की भस्म से होली खेलते हैं। कहा जाता है कि बाबा औघड़दानी बनकर महाश्मशान में होली खेलते हैं और मुक्ति का तारक मंत्र देकर भक्तों को तारते हैं। प्रति वर्ष काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर लोगों द्वारा बाबा मशान नाथ को विधिवत भस्म, अबीर, गुलाल और रंग चढ़ाया जाता है। चारों तरफ बज रहे डमरुओं की आवाज के बीच भव्य आरती होती है और लोग डमरू बजाते हुए मणिकर्णिका घाट में शमशान में जलती हुई चिताओं के बीच की भस्म लेकर एक -दूसरे को लगाते हैं और होली का जश्न मनाते हैं।
कशी नगरी को मोक्ष की नगरी भी कहा जाता है। ख़ास तौर पर होली के दौरान जिसका दाह संस्कार किया जाता है, उसके लिए ये माना जाता है कि उसे अवश्य ही मोक्ष मिलता है और बाबा स्वयं उसके लिए मोक्ष का द्वार खोलते हैं। इस दिन बाबा मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार के लिए आयी सभी चिताओं की आत्मा को मुक्ति प्रदान करते हैं। काशी नगरी दुनिया की एकमात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है और यहां शव यात्रा भी बड़े ही धूम धाम से निकाली जाती है।
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वास्तव में होली मनाने का ये ढंग थोड़ा अटपटा जरूर है, लेकिन ये काशी के स्थानीय लोगों की श्रद्धा को दिखाता है जिसे नकारा नहीं जा सकता है।
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Image Credit: shutterstock and pintrest
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