मां... कितनी ताकत है न इस एक शब्द में। यह एक शब्द कितने इमोशन्स को समेटे हुए है। मां पर कितने गाने और शेर-ओ-शायरी लिखी गई है। मशहूर शायर मुन्नवर राणा ने बड़ी खूबसूरती से मां के बारे में लिखा है, "चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है, मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है मां देखी है"। मां हमें कितना प्यार करती है इस पर सवाल कभी नहीं किया जा सकता है, लेकिन फिर क्यों हम उसके प्यार को सिर्फ खाने में खोजते हैं?
फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में श्रीदेवी का किरदार एक ऐसी मां का था जिसे उसके बच्चे और पति सिर्फ इसलिए नीचा दिखाते हैं, क्योंकि उसे अंग्रेजी नहीं आती। उन्हें लगता है कि उस मां का काम सिर्फ खाना बनाने का है और वह वही अच्छा करती है। पॉपुलर टीवी धारावाहिक 'अनुपमा' की भी ऐसी ही कहानी है। उसमें भी एक मां का काम घर संभालने और किचन तक ही सीमित दिखाया जाता है।
हमें बचपन से ही सिखाया या बताया जाता है कि मां का प्यार खाने में नजर आता है, लेकिन मेरा सवाल है कि क्यों ये प्यार हम सिर्फ उसके द्वारा बनाए हुए खाने में ही खोजते हैं?
मां का बनाया हुआ खाना! यह एक इंसान के अंदर किस तरह की भावनाएं पैदा करता है? जाहिर है यह सुनते ही हम उसके प्यार, उसकी याद और अपने बचपन में कहीं गुम हो जाते हैं, लेकिन मां के प्यार को इस तरह से स्टीरियोटाइप कर देना कितना सही है?
हर मां अपने बच्चे के लिए दिन भर रसोई में खुद को झोंकती है और पसीना बहाती है। बिना ब्रेक लिए वह दिन भर परिवार के लिए कुछ नया बनाने की जुगत में रहती है। हमारी चूंकि कंडीशनिंग बचपन से इसी तरह से की गई है कि एक आदमी के दिल का रास्ता पेट से होकर गुजरता है, तो हमने शुरू से बस वही काम संभाला। पर सोचा है कि क्या मेरी मां को खाना बनाना पसंद भी है? अगर मेरी मां को खाना बनाना पसंद नहीं होगा, तो क्या वह खराब मां हो जाएगी?
यह मेरा सवाल है हर उस बच्चे से कि क्या आपने कभी अपनी मां से पूछा कि क्या उसे यह पसंद भी है या वह इसे सिर्फ इसलिए करती हैं, क्योंकि यह उन्हें शुरू से बताया गया है कि यह उनका ही काम है!
मेरी मां उन लोगों में से हैं, जिन्हें खाना बनाना बहुत ज्यादा पसंद नहीं है। इसके बावजूद, वह हमारे लिए एक से बढ़कर पकवान बनाती हैं। हर शनिवार या रविवार को हमारे लिए 56 भोग तक तैयार कर देती हैं। हां, ऐसे दिन भी होते हैं जब एकदम थक जाती हैं, क्या इसका मतलब यह है कि वह उन दिनों मुझसे कम प्यार करती हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, लेकिन अब भी हम महिलाओं को इस मामले में अपनी बात कहने का अधिकार नहीं होता। किचन ड्यूटी को हमारी पहचान का एक अविभाज्य हिस्सा बना दिया गया है। हमें बचपन से ही इस काम के लिए एक सिपाही की तरह तैयार कर दिया जाता है, जबकि लड़कों को इससे दूर रहने की सलाह दी जाती है।
मैं समझती हूं कि मां बनना एक सौभाग्य की बात है और हर मां अपने बच्चे को दिल-ओ-जान से ज्यादा प्यार करती है। लेकिन हर मां को इस एक चीज़ को बिल्कुल भूल जाना चाहिए कि खुद को दूसरे स्थान पर रखना आपका कर्तव्य नहीं है। आप इसे प्यार नहीं कह सकते है, यह असल में कंडीशनिंग है। क्योंकि जब कोई आपसे प्यार करता है तो वे अंततः आपकी व्यक्तिगत पहचान को समझता है।
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मुझे मेरी मां के हाथ का खाना बहुत पसंद है, लेकिन मैं यह हरगिज नहीं कह सकती कि उनका प्यार सिर्फ खाने के उस डिब्बे में नजर आता है। भई मेरी मां का प्यार है, हलवा नहीं है कि कुछ समय बाद खत्म हो जाएगा! मेरी मां का प्यार हर उस डांट में झलकता है जो वो मुझे लगाती हैं। जब मैं सोती हूं और वह एक नजर मुझ पर दौड़ाती है, वहां उनका प्यार होता है। जब वह घर से मीलों दूर मैसेज में मेरा हाल पूछती हैं, वहां भी उनका प्यार दिखता है। मां का प्यार, प्रेम के सबसे पवित्र रूपों में से एक है और इसकी तुलना ब्रह्मांड की किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती फिर खाने के डिब्बे में कैसे खंगाली जा सकती है?
सबसे पहली बात तो यही है कि हम मां के प्यार को तौलना बंद कर दें और जिन भी माओं को खाना बनाना पसंद नहीं हैं, उन्हें ब्लेम करना बंद कर दें। अगर कोई महिला सिर्फ इसलिए कुक रख रही है, क्योंकि वह खाना बनाना नहीं चाहती तो वह गलत नहीं कर रही है। हमें यह समझना जरूरी है कि भोजन भले ही हमारे अस्तित्व का एक अभिन्न अंग है, लेकिन एक मां और बच्चे का रिश्ता इससे कहीं ऊपर है। जरूरी है कि हम प्रतिगामी रूढ़ियों को तोड़ें और मांओं को इस जेंडर ड्यूटी मुक्त करें।
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बहुत ही सीधे और सरल शब्दों में कहें, तो एक मां को भी एक महिला होने का पूरा अधिकार है और उसके प्यार को खाना बनाने से तौलना मुझे नागवार है।
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अब आप बताइए क्या किसी मां को सिर्फ इस स्केल पर जज किया जाना चाहिए? इस पर आपके क्या ख्याल हैं, हमें लिख भेजिए। अगर यह लेख पसंद आया तो इसे लाइक और शेयर करें। ऐसे ही लेख पढ़ने के लिए विजिट करें हरजिंदगी।
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