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शेयर मार्केट, इंवेस्टमेंट और इकॉनमी की जब भी बात होती है तो आमताैर पर FDI और FPI के बारे में जरूर जिक्र किया जाता है। ये दोनों ही हमारे यहां भारत की अर्थव्यवस्था में फॉरेन इंवेस्टमेंट के रास्ते हैं। हालांकि, इन दोनों को ज्यादातर लोग एक समझ लेते हैं, लेकिन इनमें बहुत फर्क होता है। इनका मकसद, इंवेस्टमेंट का तरीका और फाइनेंस पर असर काफी अलग होते हैं।
ऐसे में जब बात इंवेस्टमेंट की आती है, तो लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं कि कौन सा इंवेस्टमेंट ज्यादा फायदेमंद माना जाता है। आज हम आपको इन दोनाें में अंतर बताने जा रहे हैं। साथ ही ये भी बताएंगे कि इन दोनों में से इंवेस्टमेंट के लिए सबसे ज्यादा सही कौन सा है। आइए जानते हैं विस्तार से -
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फॉरेन डायरेक्ट इंवेस्टमेंट का मतलब ये है कि कोई विदेशी कंपनी या बड़ा इंवेस्टर्स किसी दूसरे देश में लंबे समय के लिए पैसा लगाता है। ये सिर्फ पैसे लगाना नहीं होता, बल्कि वो उस देश में फैक्ट्रियां बनाते हैं, ऑफिस खोलते हैं, जमीन या कोई बिल्डिंग खरीदते हैं, या फिर कोई नई कंपनी शुरू करते हैं। इससे मतलब साफ है कि सीधे बिजनेस में उतर जाना। इस तरह का इंवेस्टमेंट करने वाली कंपनियां देश में जॉब, टेक्नोलॉजी, नए आइडिया और डेवलपमेंट के मौके लेकर आती हैं। इसलिए इसे ज्यादा स्टेबल माना जाता है।
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FPI का मतलब है कि फॉरेन इंवेस्टर्स किसी देश के शेयर, बॉन्ड या दूसरी फाइनेंशियल चीजों में पैसा लगाते हैं। ये प्रॉपर्टी कभी भी खरीदी या बेची जा सकती हैं। इसका सीधा मकसद तेजी से मुनाफा कमाना होता है। इसीलिए FPI को कम समय वाला इंवेस्टमेंट माना जाता है। ऐसे में अगर मार्केट में अप्स डाउन चलते हैं तो इंवेस्टर्स तुरंत अपने पैसाें को निकाल लेते हैं। इसलिए ये FDI की तुलना में थोड़ा कम भरोसेमंद माना जाता है।
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आपको बता दें कि भारत में फॉरेन पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट (FPI) में विदेशी इंस्टीट्यूशनल इंवेस्टर्स (Foreign Institutional Investors) और दूसरे काबिल निवेशक शामिल होते हैं। लेकिन इसमें NRI नहीं आते हैं।
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FDI और FPI दोनों से देश में पैसा (रुपया) आता है। इससे ये फायदे होते हैं-
हालांकि, एक बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि जब ये फॉरेन इंवेस्टर्स अपना मुनाफा वापस अपने देश भेजते हैं, तो इसका असर हमारे Balance of Payments पर पड़ सकता है।
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