अगर हम दुनियाभर के आंदोलनों की तरफ नजर डालें, तो पाते हैं कि इन सभी आंदोलनों की जड़ें शोषण, दमन, अत्याचार और असमानता से जुड़ी हुई हैं। यही कारण महिला आंदोलनों के पीछे भी मौजूद रहा है। इतिहास गवाह रहा है कि महिलाओं को हमेशा से दबाया जाता रहा है, जैसे सभ्य समाज बनाने की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर हो। इतिहासकारों का मानना है कि पुराने जमाने में महिलाओं को केवल बच्चे पैदा करने और घर का काम करने वाला संसाधन माना जाता था।
हालांकि, बदलते समय के साथ पितृसत्ता समाज में महिलाओं ने अपने अधिकारों को समझने और उसे पाने के लिए संघर्ष करना शुरू किया। वहीं, भारत में महिलाओं ने सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण, लैंगिक समानता और मानवाधिकारों के लिए कई ऐतिहासक आंदोलन चलाए। चिपको आंदोलन से लेकर गुलाबी गैंग तक, महिलाओं ने देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अहम भूमिका निभाई। इस महिला दिवस पर, हम आपको भारत में महिलाओं द्वारा संचालित प्रमुख आंदोलनों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने समाज पर अमिट छाप छोड़ी है।
चिपको आंदोलन (1973)
भारत की आजादी के करीब 26 साल बाद यानी 1973 में देश के अंदर बड़ी कंपनियों ने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। जिसके चलते, उत्तर प्रदेश सरकार के वन विभाग ने गढ़वाल के हरे-भरे जंगलों को काटने का आदेश दिया था। हालांकि, यह सारा काम सरकार की देखरेख में हो रहा था, लेकिन वहां रहने वाले लोगों के लिए जंगल केवल पेड़ नहीं थे, बल्कि उनके लिए परिवार का हिस्सा थे। जंगलों को बचाने के लिए महिलाओं ने गौरा देवी की नेतृत्व में चिपको आंदोलन की शुरुआत की थी। इस आंदोलन के दौरान, जब ठेकेदार पेड़ काटने आते थे, तो महिलाएं पेड़ों से लिपट जाती थीं। वे पेड़ों को काटने नहीं देती थीं। चमोली के रेणी गांव में करीब 2500 पेड़ों को काटने की प्लानिंग की गई थी, लेकिन गांव की बहादुर महिलाओं ने अपनी जान की परवाह किए बिना इसका विरोध किया था। चिपको आंदोलन का असर ऐसा हुआ कि क्षेत्र में Commercial Logging पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
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शराब विरोधी आंदोलन (1990)
1990 के दशक में आंध्र प्रदेश की महिलाओं ने एक अनोखा आंदोलन शुरू किया था, जिसने सरकार को घुटनों पर ला दिया था। दरअसल, गांव की महिलाएं पुरुषों के दिनभर शराब के नशे में धुत रहने से परेशान हो गई थीं। वे घर की सभी जिम्मेदारियां खुद उठा रही थीं और पुरुष उनके साथ शराब के नशे में मारपीट किया करते थे। इससे तंग आकर महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन करना शुरू किया था। महिलाओं ने सीएम को खून से चिट्ठी तक लिखी थी, जिसमें लिखा था कि हमें ऐसी शराब नहीं चाहिए, जो हमारा खून पी जाए। शराब बिक्री पर रोक लगाई जानी चाहिए। हालांकि, मुख्यमंत्री ने उस समय मांग को ठुकरा दिया था, जिसकी वजह से महिलाएं घर के बाहर आकर धरना देने लगी थीं।
महिलाओं ने गांव में शराब की दुकानों पर जाकर तोड़फोड़ करनी शुरू कर दी थी, ताकि पुरुषों को शराब न मिल सके। महिलाओं ने चेतावनी दी थी कि अगर गांव का कोई आदमी शराब पीएगा, तो उसे गंजा करके गधे पर बिठाकर गांव में घुमाया जाएगा। इस आंदोलन का प्रभाव ऐसा पड़ा कि 1995 में आंध्र प्रदेश सरकार को राज्य भर में शराब पर प्रतिबंध लगाना पड़ा।
गुलाबी गैंग (2006)
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से गुलाबी गैंग की शुरुआत हुई थी और इस गैंग का नेतृत्व संपत पाल करती थीं। एक दिन उन्होंने देखा कि पड़ोसी महिला को उसका पति बुरी तरह से पीट रहा है। जब संपत महिला को बचाने के लिए गईं, तो उस आदमी ने गुस्से से कहा कि यह उसके घर का मामला है और उन्हें बीच में नहीं पड़ना चाहिए।
गुस्से में, संपत ने गांव की 5 महिलाओं को इकट्ठा किया और कुछ दिनों बाद उस आदमी को खेत में ले जाकर सबक सिखाया। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर महिला पर दुबारा हाथ उठाया, तो अंजाम बहुत बुरा होगा। इस तरह धीरे-धीरे संपत के साथ सैकड़ों महिलाएं जुड़ने लगीं। ये महिलाएं गुलाबी साड़ी पहनती थीं, इसलिए इस समूह का नाम गुलाबी गैंग पड़ गया।
गुलाबी गैंग महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने लगा और जहां पर भी महिला के साथ अन्याय या अत्याचार होता, तो यह गैंग फौरन पहुंच जाता था। लोग गुलाबी गैंग से खौफ खाने लगे थे। एक बार, इस गैंग ने थान प्रभारी तक को बंधक बना लिया था, क्योंकि वह एक महिला के साथ छेड़छाड़ कर रहा था। गुलाबी गैंग ने बांदा और आसपास के जिलों में सम्मान पाना शुरू कर दिया था और इस गैंग ने महिलाओं के हक और सम्मान के लिए काफी लड़ाई लड़ी थी।
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मेइरापैबी आंदोलन (1980)
मेइरापैबी का मणिपुरी भाषा में मतलब होता है मशाल धारण करने वाली महिलाएं। मणिपुर में 1970-80 के दशक में उग्रवाद और हिंसा काफी बढ़ गई थी। सरकार ने अशांति को रोकने के लिए AFSPA पूरे राज्य में लगा दी थी। इस कानून के तहत, सुरक्षा बलों के पास किसी भी संदिग्ध को बिना वारंट के गिरफ्तार करने और उसकी संपत्ति को जब्त करने का अधिकार था। इस कानून के तहत, राज्य के निर्दोष नागरिकों को काफी अत्याचार सहना पड़ रहा था। सेना पर महिलाओं के उत्पीड़न और मानवाधिकारों के हनन को लेकर कई आरोप भी लगे थे। मणिपुर की महिलाएं इस अन्याय को सहन नहीं कर पाईं और उन्होंने इसके खिलाफ मेइरापैबी आंदोलन शुरू किया।
इस आंदोलन के तहत, महिलाएं रात में मशाल लेकर सड़कों पर गश्त किया करती थीं और अपने गांवों की निगरानी करती थीं ताकि सेना या कोई बाहरी तत्व निर्दोष लोगों पर हमला न कर सके।
नर्मदा बचाओ आंदोलन (1985)
भारत के सबसे बड़े जनआंदोलनों में से एक नर्मदा बचाओ आंदोलन था, जिसका नेतृत्व सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने किया था। 1985 में शुरू हुआ यह आंदोलन नर्मदा नदी पर बनने वाले बड़े बांधों के कारण विस्थापित हो रहे लोगों और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के खिलाफ था।
इस आंदोलन के जरिए मेधा पाटकर और दूसरी महिलाओं ने नर्मदा नदी के किनारे धरना प्रदर्शन किया और सरकार से उचित पुनर्वास और मुआवजे की मांग की। इस आंदोलन ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा था। इतना ही नहीं, आंदोलनकारियों ने दिल्ली तक मार्च किया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से बातचीत भी की थी। वहीं, साल 1999-2000 के बीच नर्मदा पर बांध बनाने की योजना ने तेजी पकड़ ली थी, जिसके चलते यह आंदोलन भी तेज हो गया था। मेधा पाटकर और दूसरे कार्यकर्ताओं ने अनशन किया था और कई महीनों तक विरोध प्रदर्शन चला था। साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था, जिसमें विस्थापितों को पुनर्वास और मुआवजा देने की बात कही गई थी।
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