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14 november childrens day anath ashram asha sad emotional fiction story in hindi on bal diwas

Children's Day पर जयपुर के इस अनाथ आश्रम में एक ऐसी साजिश रची जा रही थी, जिसका पता किसी को नहीं था, 12 साल की आशा ने हिम्मत तो जुटाई लेकिन..

समय किसी फैसले का इंतजार नहीं करता आशा ने बिना देर किए सोफे के पीछे खुद को खिसका लिया और सांस रोककर वहीं दुबकी रह गई। आखिर अनाथ आश्रम में उसके साथ ऐसा क्या हो रहा था।
Editorial
Updated:- 2025-11-14, 19:03 IST

जिंदगी में सबसे बड़ी चीज होती है किस्मत और दूसरी बड़ी चीज है पैसा, ये नियम दीनदयाल अनाथ आश्रम के बच्चों को बहुत अच्छे से पता था। कुल मिलाकर 78 बच्चे थे उस अनाथ आश्रम में। जयपुर शहर से थोड़ी दूर पर बना ये अनाथ आश्रम हमेशा चहल-पहल से भरा रहा था। बच्चों के लिए सुविधाएं कम थीं, लेकिन उनके जीवन में एक दूसरे का साथ था। इस आश्रम में होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, नया साल और बाल दिवस यानी चिल्ड्रेंस डे पर बहुत कुछ होता था। सरकारी ग्रांट जो आती थी उसका कितना हिस्सा इन बच्चों पर खर्च होता था ये तो नहीं पता, लेकिन जितना भी होता था उनके लिए वही बहुत था।

नवंबर का महीना एक बार फिर से थोड़ी सी राहत लेकर आया था। जयपुर में वैसे तो ज्यादा ठंड पड़ती नहीं है, लेकिन इस वक्त मौसम खुशनुमा हो गया था। आश्रम के बच्चे आने वाले चिल्ड्रेंस डे के लिए बहुत ही ज्यादा उत्साहित थे। ये एक दिन है जब वो खुलकर हसेंगे और इस दिन तो हलवा भी बनेगा।

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सभी बच्चे 14 तारिख का इंतजार कर रहे थे और इनमें से एक थी 12 साल की आशा जो कहने को 12 ही साल की थी, लेकिन उसकी आंखें कुछ ऐसी थीं मानों बरसों का दर्द और अनुभव लिए बैठी हो। ऐसे तो ज्यादा बोल चाल नहीं करती थी आशा, लेकिन उसकी खामोशी के पीछे बहुत तेज दिमाग और एक सशक्त व्यक्तित्व छुपा था। आशा के साथ जो भी हुआ हो, उसने कभी इसके बारे में किसी से नहीं कहा। आशा को भी बाल दिवस अच्छा लगता था। उसे ताजा बने हुए हलवे की खुशबू बहुत ही अच्छी लगती थी। दरअसल, आशा उन बच्चों में से थी जिन्हें अपने माता-पिता की कुछ बातें याद थीं। उसके माता-पिता एक कार हादसे में चल बसे थे। 6 साल की आशा को अपने घर से बेघर होना पड़ा और फिर वो यहां आ गई।

इस आश्रम की मेट्रन थीं बंगाली मिसेज चटर्जी जो हमेशा कहा करती थीं कि आशा अपनी उम्र से काफी तेज है। आशा हमेशा कुछ ऐसे सवाल पूछ लेती थी जिन्हें पूछने से बाकी लोग डरते थे। पिछले कुछ दिनों से आशा मिसेज चटर्जी के निशाने पर थी। उसे हर वक्त किसी ना किसी वजह से परेशान करती रहती थीं।

आशा ने कुछ दिन पहले आश्रम में रात के वक्त आने वाले लोगों के बारे में पूछा था। आशा उस वक्त पानी पीने के लिए उठी थी और अचानक उसे लगा जैसे उसके पीछे कोई खड़ा है। उस व्यक्ति को उसने जाते हुए देखा और सुबह उठकर उसने इसके बारे में आश्रम में सबसे पूछा। पर किसी ने कुछ कहा नहीं। मिसेज चटर्जी उसके बाद से आशा पर नजर रखने लगीं। आशा ने भी इसके खिलाफ कमर कस ली थी। उसने मिसेज चटर्जी से बचते हुए दूसरी रात पहरा दिया और दीवार के पीछे से कुछ आवज सुनी।

ये बाल दिवस के लगभग एक हफ्ते पहले की ही बात है। आशा ने दो आदमियों की आवाज सुनी। 'कागज रेडी हैं, एक बार हम जमीन बेच दें फिर बच्चों को कहीं और शिफ्ट कर देंगे,' उनमें से एक ने कहा।
'अच्छा है, कोई सवाल करने वाला नहीं, मेट्रन भी इसमें हमारे साथ है।'

आशा का दिल बैठ गया, जमीन बेच देंगे मतलब? आखिर आश्रम कहां जाएगा? अपना घर छूटने के बाद यही तो एक घर मिला है उसे।

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आशा को समझ आ गया था कि क्या करना है, उसने अगली रात मिसेज चटर्जी के ऑफिस में घुसने का प्लान बनाया। उनके ऑफिस के रौशनदान का कांच टूटा हुआ था, ये मुश्किल था, लेकिन आशा ने किसी तरह से कर दिखाया। ऑफिस में उसे बिना आवाज के ही सारे दस्तावेज ढूंढने थे। उसने धीरे-धीरे शुरुआत की, एक के बाद एक अलमारी, एक के बाद एक दराज। फिर उसे लकड़ी की अलमारी के पीछे एक फाइल मिली। उस फाइल में ऊपर कुछ भी नहीं लिखा था, लेकिन उसे खोलते ही आशा को एक नाम दिखा। मिनिस्टर देवराज, वही मिनिस्टर जो बाल दिवस पर आश्रम में आकर भाषण देने वाला है।

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आशा को कागजात में लिखी बातें समझ तो नहीं आईं, लेकिन उसने उस फाइल को अपने साथ रखना ही बेहतर समझा। आशा को अब बाहर निकलना था, मिसेज चटर्जी के ऑफिस की तरफ आते हुए कदमों की आवाज उसे सुनाई दे गई थी। इतनी जल्दी वो रौशनदान की खिड़की से बाहर नहीं जा सकती थी। आशा ने अपने दाएं-बाएं देखा और मिसेज चटर्जी के सोफे पीछे थोड़ी सी जगह थी। खिड़की से अगर कोई अंदर झांके तो उस जगह को देख ले, लेकिन अगर कोई अंदर है, तो उसके पीछे नहीं देख सकता था। आशा उस जगह ही जाकर छुप गई।

दो मिनट के अंदर मिसेज चटर्जी और उनके साथ एक और आदमी अंदर आया। 'मिनिस्टर साहब बाल दिवस की स्पीच देने आएंगे और हम उसी समय फाइल उन्हें दे देंगे। साइन करने की देरी है बस, सरकारी ग्रांट तो वैसे भी अकाउंट में ही आती है, वो आती रहेगी,' मिसेज चटर्जी ने कहा। दूसरा आदमी बस सिर हिला रहा था। उसे बस पैसे से मतलब था। आशा ने जब उन दोनों की बातें सुनी तब उसकी समझ में आया कि असल में ये लोग आश्रम की जमीन बेचकर पैसे ले लेंगे और सरकारी मिनिस्टर का साथ होने के कारण उन्हें परेशानी भी नहीं होगी। ये बच्चे ना जाने कहां-कहां भेज दिए जाएंगे।

इन दोनों की बातें सुनते-सुनते आशा अपने मन में ही प्लान बनाने लगी। मिसेज चटर्जी और वो आदमी कुछ बातें और डिस्कस करके फिर वहां से चले गए।

आशा ने उस फाइल को कसके पकड़ा और फिर उसी रास्ते से वापस जाने लगी। आशा को पता था कि अगर इस फाइल पर साइन हो गए तो मिसेज चटर्जी को रोकना बहुत मुश्किल है। आशा ने अगली कुछ रातें और सबूत इकट्ठा करने में लगाईं। वो रोजाना मिसेज चटर्जी के ऑफिस उसी तरह से जाती और धीरे-धीरे एक-एक चीज को अच्छे से देखती। उसने कुछ कागज, एक पेन ड्राइव और मिसेज चटर्जी का एक पेन गायब कर ही लिया था। मिसेज चटर्जी को गायब फाइल के बारे में तो पता चल गया था, लेकिन उन्हें गायब पेन ड्राइव का इल्म नहीं था। उन्हें लग रहा था कि किसी वजह से सफाई वाली ने ही वो फाइल उठाकर फेंक दी होगी क्योंकि कुछ दिन पहले उन्होंने ही सफाई वाली को कुछ कागज फेंकने को दिए थे।

ऐसे ही बाल दिवस से एक रात पहले उसने फिर उन्हीं दो आदमियों को आते हुए देखा। उसने फिर दीवार के पीछे से सुनने की कोशिश की। तब उसे पता चला कि इतने दिनों की मेहनत बेकार गई। दरअसल, मिसेज चटर्जी ने सब कुछ अपने लैपटॉप में बैकअप करके रखा था। जो फाइल उसने ली थी, उसकी कॉपी भी वहीं थी। इसी के साथ, प्रॉपर्टी के कागज तो किसी और जगह रखे थे, फाइनेंशियल डॉक्युमेंट भी लैपटॉप में थे। अब आशा के पास बहुत कम समय बचा था और इसी बीच उसे कुछ ऐसी तरकीब लगानी थी जिससे सब कुछ कानून के सामने आ जाए।

मिनिस्टर साहब के साथ एक स्थानीय कलेक्टर पारितोष शर्मा भी आ रहे थे। आशा ने न्यूजपेपर में पढ़ रखा था कि वो बहुत इमानदार हैं। उसके पास ऐसे अंजान व्यक्ति के ऊपर भरोसा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। बाल दिवस की सुबह भी आ गई और आशा ने खुद ही स्पीच देने की गुजारिश की। आशा किसी तरह से स्टेज पर जाना चाहती थी। उसे पता था कि उसके पास एक ही मौका है और उसने मिसेज चटर्जी की पेन ड्राइव पहले ही गायब कर रखी थी।

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बाल दिवस का फंक्शन शुरू हुआ। हलवे की खुशबू से पूरा आश्रम भर गया। मिनिस्टर साहब और कलेक्टर साहब दोनों ही आकर बैठे। आशा ही स्टेज पर गई और उसने कहा, 'मैंने सबके लिए एक गाना तैयार किया है, क्या मैं पेन ड्राइव लगाकर म्यूजिक चला लूं?' बाकी सबने हां कहा, लेकिन मिसेज चटर्जी को भनक लग गई। उन्हें समझ आ गया कि आशा के पास जो पेन ड्राइव है वो उनकी ही है क्योंकि और किसी भी तरह से आशा के पास ये पेन ड्राइव नहीं आ सकती थी।

इससे पहले कि मिसेज चटर्जी कुछ कह पातीं, आशा ने पेन ड्राइव स्टेज के पास वाले लैपटॉप में लगा दी। उस लैपटॉप के जरिए पीछे पर्दे की स्क्रीन पर प्रोजेक्टर चल रहा था जिसमें अनाथ आश्रम के बच्चों की तस्वीरें थीं। पेन ड्राइव लगते ही जो खुला वो देखकर सबके होश उड़ गए। उसमें भी उसी फाइल की एक कॉपी, फाइनेंशियल स्टेटमेंट्स के साथ-साथ मिसेज चटर्जी और मिनिस्टर साहब की कुछ तस्वीरें थीं जो शायद मिसेज चटर्जी ने मिनिस्टर साहब को बाद में ब्लैकमेल करने के लिए रखी थीं।

उस फंक्शन में तस्वीरें खींचने के लिए एक रिपोर्टर भी आया था और उसने जल्दी-जल्दी सब कुछ अपने फोन में रिकॉर्ड करना शुरू किया। इसके बाद आशा ने अपनी स्पीच शुरू की, 'सबको देखकर अजीब लग रहा होगा, लेकिन ये सच है, मिसेज चटर्जी सरकारी ग्रांट लेकर भी इस जमीन को बेचने वाली थीं और फिर हम सबको बेघर करने वाली थीं...'

चारों ओर सन्नाटा छा गया और एकदम से लोगों की आवाज, आशा ने अपनी स्पीच में सब कुछ बता दिया। आशा अपना भाषण खत्म कर पाती उससे पहले ही मिनिस्टर साहब वहां से उठकर जाने लगे, तो कलेक्टर साहब ने उन्हें रोक दिया। कुछ ही देर में वहां पुलिस आ गई। सबका स्टेटमेंट लिया गया। आशा के करीब आकर कलेक्टर साहब ने पूछा, 'तुम्हें डर नहीं लगा?' आशा ने उनकी तरफ देखा और कहा, 'लगा था ना, दोबारा बेघर होने का डर,' आशा की ये बात सुनकर कलेक्टर साहब का दिल पसीज गया।

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अगले दिन अखबार में खबर छपी, 'अनाथ बच्ची ने मिनिस्टर के स्कैम का किया पर्दाफाश...'

इस खबर को कलेक्टर शर्मा ने भी देखा। उन्हें इस खबर में एक बहुत बड़ी गलती लग रही थी, अनाथ लड़की पढ़कर उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था।

एक-दो दिन में मिनिस्टर साहब की गिरफ्तारी का वारंट आ गया, लेकिन वो पहले ही शहर छोड़ चुके थे। मिसेज चटर्जी तो उसी दिन गिरफ्तार हो गई थीं। ये केस चला और मिनिस्टर साहब को भगौड़ा करार दे दिया गया। फास्ट ट्रैक कोर्ट ने मिसेज चटर्जी को 10 साल की सजा सुनाई। इतने समय बाल सुविधा के लिए आ रही ग्रांट असल में मिसेज चटर्जी के पर्सनल अकाउंट में भी जाती थी।

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हफ्तों बाद आशा ने अनाथ आश्रम से अपना बैग पैक किया। उसने इस आश्रम को एक बार फिर से अच्छे से देखा, सोचा अपने आने वाले कल के लिए और नई मेट्रन से विदा लेकर बाहर निकली। वहां कलेक्टर साहब की गाड़ी उसका इंतजार कर रही थी।

कलेक्टर साहब की बेटी बनकर अब वो उनके घर जा रही थी। आशा को आशा है कि अब उसकी जिंदगी हंसी खुशी बीतेगी।

यह कहानी पूरी तरह से कल्पना पर आधारित है और इसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है। यह केवल कहानी के उद्देश्य से लिखी गई है। हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। ऐसी ही कहानी को पढ़ने के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।

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