
मसूरी के पास देवलसारी की रहने वाली संध्या इस साल 14 की हो गई थी। देवलसारी गांव जहां हज़ारों तरह की तितलियां पाई जाती हैं अपने बटरफ्लाई फेस्टिवल के लिए प्रसिद्ध है। बचपन से ही संध्या की तुलना भी किसी रंग-बिरंगी तितली से की जाती थी। जिंदगी में हमेशा सब कुछ एक जैसा नहीं चलता ना। माता-पिता के जाने के बाद जैसे संध्या का कोई सहारा ही नहीं रहा। घर में बस बूढ़ी दादी थी और पहाड़ों पर बसा उसका घर भी खेतों के पास था। माता-पिता के जाने के बाद खेतों में काम करना ही बहुत मुश्किल हो गया था। बड़ी मुश्किल से अपने खाने के लिए थोड़ी बहुत सब्जियां और कुछ फल मिल जाते थे, लेकिन इस बार की बरसात ने वो भी खराब कर दिया।

पहाड़ों का जीवन इतना आसान नहीं होता है और एक आपदा जीवन को अस्त-व्यस्त करने के लिए काफी होती है। इस बार की बारिश ने रही-सही पूंजी भी खत्म कर दी। संध्या के पास और कोई रास्ता नहीं था, उसे मसूरी जाकर कुछ काम ढूंढना था। नवंबर की दस्तक मसूरी के पास एक छोटे से गांव में थोड़ी ज्यादा ही ठंडक लेकर आ गई थी। सर्द हवा ने संध्या की तबीयत थोड़ी खराब कर दी थी। दादी इसे लेकर बहुत डर रही थी, 'तबीयत ठीक नहीं, वहां जाकर करेगी क्या? पढ़े-लिखे लोगों का शहर है वो, वहां ऐसे काम नहीं होता है,' दादी ने कहा। 'कुछ तो करना ही पड़ेगा ना अम्मा, वर्ना खाओगी क्या? बबली चाची कह रही थीं कि वहां किसी कोठी में काम करने के लिए लोग चाहिए, मैं वहीं जाऊंगी,' संध्या ने कहा और अपने कपड़े बांधने में लग गई।
मसूरी जाने के पहले उसने बबली चाची से सारी जानकारी ले ली थी। अगले दिन बस में बैठी और चल पड़ी। कुछ साल पहले मां-पापा के साथ यहां आई थी संध्या, लेकिन तब खुश थी। वही घुमावदार सड़कें, वही खूबसूरत नजारे, लेकिन इस बार एक खालीपन। खिड़की से बाहर देखते वक्त संध्या ना जाने क्या सोच रही थी कि उसकी पलकें गीली हो गईं। यादों की भी अजीब सी कहानी है, वक्त-बेवक्त कभी भी हमें परेशान करने आ जाती हैं। सफर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। बस अड्डे पर बस रुकी तो मानो संध्या की नींद खुल गई। रो-रोकर आंखें सूझ चुकी थीं।

संध्या ने जो पता लिया था, उसतक पहुंचना इतना आसान भी नहीं था। शहर से थोड़ा बाहर बनी हुई कोठी तक पहुंचाने के लिए कोई रिक्शा तैयार ही नहीं था। जो तैयार था वो पैसे बहुत मांग रहा था। उसे लग रहा था कि किसी तरह से वहां पहुंच जाए, तो काम शुरू कर देगी और फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। संध्या की हालत भी कुछ ज्यादा अच्छी नहीं लग रही थी, थोड़ी दूर वो सामान लेकर चली और फिर उसने थक हारकर खाने के पैसों से रिक्शा कर ही लिया।

वहां पहुंचकर मकान की मालकिन से बात की, 'मुझे बबली पंत ने भेजा है, क्या आपके यहां कोई काम है?' संध्या ने मासूमियत से पूछा। 'कौन बबली पंत? मैं नहीं जानती किसी को, कहां से आई हो?' कोठी की मालकिन ने संध्या को कुछ खास भाव नहीं दिया। 'जी देवलसारी वाली, मैं काम के लिए आई हूं, घर में झाड़ू-पोंछा, बागबानी, खाना बनाना वगैराह...' संध्या बोल पाती उससे पहले ही उसकी आंखों में आंसू आ गए। 'बस कर, मुझे नहीं सुनना... पता नहीं कहां से आई है, मैं अपने आप ही क्यों रख लूं तुझे घर में?'
उनकी बातों ने जैसे संध्या के दिल को तोड़ ही दिया। वो बेचारी क्या करती, इसी घर के सहारे तो इतनी दूर आ गई थी। दादी से क्या कहेगी? नौकरी नहीं मिली। उम्र भले ही 14 हो संध्या की, लेकिन उसने पिछले एक साल में जितनी चीजें देख ली हैं, उसका बचपना कहीं चला गया। घर पर नौकरी करने देना तो दूर, उस कोठी की मालकिन ने उसे अपने बगीचे में भी थोड़ी देर आराम नहीं करने दिया। ठंड के साए के बीच, बुखार में तपती हुई संध्या अपना सा मुंह लेकर पास ही एक चाय की दुकान पर चली गई। इसे संध्या की किस्मत कह लें या फिर मजबूरी उस चाय की दुकान पर उस दिन बर्तन धोने वाला कोई नहीं आया था।
उस शाम संध्या ने ना जाने कितने बर्तन धोए। उसे खाने को खाना और सोने को जगह मिल गई। सर्द शाम और तबीयत खराब होने से संध्या और परेशान हो गई थी। अगले दिन सुबह उस दुकान से भी उसे हटा दिया गया। बस एक ही रात का काम जो था। संध्या एक बार फिर से परेशान हो गई। वापस जाने की गुंजाइश नहीं थी। किसी और जगह काम ढूंढना ही था। उसने आस-पास के घरों में पूछना शुरू कर दिया। सुबह से भूखी-प्यासी संध्या को आखिर दोपहर तक एक घर ऐसा मिला जहां कोई नौकर नहीं टिकता था। वॉचमैन ने पहले ही उसे जता दिया था कि यहां काम करना आसान नहीं, हो सके तो ना ही करे, लेकिन संध्या के पास और कोई चारा नहीं था।

उस बड़े से घर के अंदर जैसे ही वो गई, उसे कुछ अजीब सा लगने लगा। उस घर में एक बड़ा सा हॉल था जिसकी खिड़कियां दिन की रौशनी को तरस रही थीं। मोटे परदों से ढकी उन खिड़कियों पर धूल जम गई थी। यहां रिटायर्ड ब्रिगेडियर का परिवार रहता था। ब्रिगेडियर साहब तो ना जाने कब के समाप्त हो गए थे, लेकिन उनका परिवार अभी भी यहीं था। उनकी पत्नी का व्यक्तित्व बहुत अजीब था। वो सिर्फ उतनी ही बात करती थीं जितना उन्हें ठीक लगता था। उनके दो बेटे, बहुएं और पोते-पोतियां भी थीं, लेकिन सभी उनसे अलग रहते थे। उनके साथ कोई दूर का भाई भी रहता था और इतने बड़े घर में बस दो ही लोग थे।
संध्या को काम मिल तो गया, लेकिन सुबह से शाम तक काम करते-करते उसका जो हाल होता, वो वही जानती थी। घर के अंदर सिर्फ वही जा सकती थी, बाकी वॉचमैन और सभी बाहर रहते थे। संध्या को खिड़कियां खोलने की सख्त मनाही थी, उसे खाना बनाना, बर्तन धोना, सफाई सब कुछ अकेले ही करना पड़ता था। शांति देवी और उनके भाई तो संध्या के साथ ऐसा व्यवहार करते थे जैसे वो कोई जानवर हो। उसे सुबह जल्दी उठकर शांति देवी के लिए चाय बनानी होती थी, फिर उनके भाई के लिए ठीक 30 मिनट बाद कॉफी। दोनों का नाश्ता-खाना और बाकी सब कुछ अलग बनता था।
संध्या से कोई गलती हो जाती, तो उसे ऐसे दुत्कारा जाता जैसे उसने किसी की जान ले ली हो। धीरे-धीरे एक हफ्ता बीत गया। बीमार होने की वजह से संध्या और परेशान रहती थी, लेकिन पैसे कमाना बहुत जरूरी था। आखिर एक हफ्ते बाद किसी तरह से हिम्मत जुटाकर संध्या ने दादी को फोन किया। 'कैसी है?' दादी ने पूछा, 'मैं ठीक हूं दादी, तुम कैसी हो?'

संध्या ने किसी तरह से अपनी आवाज़ का दुख छुपाते हुए कहा। 'तू चिंता ना कर, अगर अच्छा नहीं लग रहा, तो आ जा वापस, खेतों में फिर से मेहनत करेंगे, सब हो जाएगा' दादी ने जिस तरह से कहा संध्या फफक कर रो पड़ी। दादी और संध्या दोनों को पता था कि अगले साल से पहले ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है। उसे खेतों में मजदूरों को लगाने के लिए भी पैसे चाहिए, कुछ तो कमाना ही होगा।
14 साल की उम्र में घर की जिम्मेदारी निभाने वाली संध्या एक बार फिर से काम में लग गई। ऐसा लगता था जैसे हर दिन पहले से बद्तर होता जा रहा है। एक दिन चाय खराब लगी तो शांति देवी ने चाय ही संध्या के पास फेंक दी, गर्म चाय से उसका पैर भी जल गया था। किसी तरह से एक और हफ्ता निकला, इन 14 दिनों में ही संध्या की हालत पहले से ज्यादा खराब हो गई थी। घर का वॉचमैन और दूधवाला भी कहने लगा था कि वो यहां से चली जाए, जिंदगी कई बार ऐसा इम्तेहान ले लेती है जिसमें समझ नहीं आता कि क्या किया जाए। संध्या को पता था कि वो जा नहीं सकती है।
तीसरा हफ्ता शुरू होते-होते संध्या के ऊपर पहली बार हाथ उठाया गया, थकान के कारण संध्या सब्जी काटते-काटते वहीं किचन में सो गई थी, लेकिन जैसे ही शांति देवी का भाई वहां आया, उसने संध्या उठाया और ना जाने कितना बुरा-भला कहा। एक बार शांति देवी ने उसे अपनी दवा लेने के लिए 7 किलोमीटर दूर भेज दिया।

वहां से आने के बाद भी उससे घर का सारा काम करवाया। कई बार हमें जिंदगी में ऐसे लोग मिलते हैं जो इंसान की शक्ल में दैत्य होते हैं। इस घर का भी वही हाल था। संध्या बिना कुछ कहे चुप-चाप सोचती जा रही थी कि बस कुछ दिन और, अपनी पगार लेने के बाद वो इस घर को छोड़ देगी। एक महीने के बाद उसके पास मौका होगा कहीं और काम करने का। उसने वॉचमैन से बात भी कर ली थी कि वो किसी और घर में नौकरी लगवा दे।
चौथा हफ्ता आते-आते आलम ऐसा हो गया था कि संध्या का खाना-पीना भी दुष्वार हो गया था। उसे बस इंतजार था, तो अपने पैसों का। आखिर वो दिन आ ही गया जब संध्या को सैलरी मिलनी थी, उसे लग रहा था मानो जीवन के दुखों का अंत होने वाला है। उसने तैयारी भी शुरू कर दी थी कि कल ही इस घर को छोड़ देगी। शांति देवी के पास जाकर जब उसने पैसे मांगे, तो पहले तो शांति देवी बहुत नाराज हुईं, उसे दुनिया भर की बातें सुनाईं और फिर आधी सैलरी उसके हाथ में रख दी। उसे कुछ समझ में आता उससे पहले ही उसकी गलतियां गिनवाना शुरू कर दिया, संध्या की छोटी-छोटी आदतों को उसकी गलती बताकर उन्होंने पैसे काट लिए। संध्या रोते-रोते वहां से चली गई, उसने अपने वापस जाने और दो-तीन दिन कहीं रुकने के लिए पैसे जुटा रखे थे, लेकिन यहां तो उल्टा ही हो गया।
इसी बीच उसने अपने गांव पैसे भेज दिए। पोस्ट ऑफिस से मनी ऑर्डर करवा कर जैसे ही वो लौटी, वैसे ही उसके चेहरे पर शांति देवी ने एक जोरदार तमाचा मारा। 'कहां चली गई थी, चाय कौन बनाएगा?' संध्या ने खुद को संभाला और कहा, 'आज तो मैं ही बनाऊंगी, कल से आप किसी और को ढूंढ लेना, मैं नौकरी छोड़कर चली जाऊंगी,' शांति देवी ने जैसे ही ये सुना गुस्से से लाल हो गईं। फिर पता नहीं उनके दिमाग में क्या आया, उन्होंने संध्या के साथ अच्छे से व्यवहार किया, खाना बनवाया, सब काम करवाया, रात होते-होते अपने पैर भी दबवाए और रात के 11.45 बजे घर से बाहर निकाल दिया।

उन्होंने संध्या को अपना सामान तक नहीं लेने दिया, आज वॉचमैन भी छुट्टी भी था, संध्या के पास रात में जाने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, उसने किसी तरह पास वाले पीसीओ में जाकर पुलिस को फोन लगाने की कोशिश की, लेकिन कुछ ना हुआ। मसूरी में दिसंबर का महीना अपने साथ बेहद सर्द रातें लेकर आया था। बस एक पतले से स्वेटर में बिना मोज़ों के संध्या रात भर उसी पीसीओ में रही।
सुबह जब वॉचमैन आया, तो उसने संध्या के पास जाकर कहा, 'यहां क्यों हो? मुझे पता था ये लोग ऐसे ही करेंगे, उठो जल्दी...' वो कुछ और बोलता उससे पहले उसने देखा कि संध्या स्थिर हो चुकी थी। उसके शरीर पर ओस की पतली सी परत जम गई थी। होंठ सफेद हो चुके थे, ऐसा लग रहा था मानो कुदरत ने उसके शरीर पर एक सफेद चादर चढ़ा दी हो।
वॉचमैन ने उसी वक्त पुलिस को बुलाया। हर बार उस घर से सिर्फ नौकर भागते थे, वो इसलिए टिका था क्योंकि घर के बाहर ही रहता था। अब वो इसे नहीं सह सकता था। उसने संध्या के साथ हुई हर बात पुलिस को बता दी। आखिर पुलिस ने शांति देवी और उनके भाई को गिरफ्तार कर लिया। अब उनपर केस चलेगा और केस के वक्त क्या होता है, लोगों को पता ही है।

दादी के पास गांव में संध्या का मनी ऑर्डर पहुंचा, दादी खुश हो पातीं उससे पहले ही खबर पहुंच गई। संध्या अब इस दुनिया में नहीं थी। दादी अकेली थीं, वो उस दिन को कोस रहीं थी जब उन्होंने संध्या को मसूरी भेजा था। एक बच्ची इस दुनिया को सिर्फ इसलिए छोड़कर चली गई क्योंकि वो जीना चाहती थी।

यह कहानी पूरी तरह से कल्पना पर आधारित है और इसका वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है। यह केवल कहानी के उद्देश्य से लिखी गई है। हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। ऐसी ही कहानी को पढ़ने के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।
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