आज हम जब इतिहास के पन्नों को पलटकर देखते हैं, तो कितनी महिलाओं के नाम सामने आते हैं, जिन्होंने भारत को बनाने में अहम भूमिका निभाई। कितनी महिलाओं ने अपना खून-पसीना करके इस देश को आगे बढ़ाया है। आज हम कहते हैं कि हमारा देश एक फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनोमिज में से एक है, लेकिन इस इकॉनमी से महिलाओं की भागीदारी क्यों गायब है?
इतना ही नहीं, पिछले कुछ समय में भारत में हो रहे चुनावों में महिला मतदान का प्रतिशत बढ़ते हुए देखा गया। इसके बावजूद देश के सबसे बड़े और प्रमुख सेक्टर में महिलाओं की कमी एक बड़ा सवाल भी खड़ा करती है। यह सवाल है कि आखिर हम किन स्तरों पर चीजों को अनदेखा कर रहे हैं, जो राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में महिलाओं की हिस्सेदारी कम हो रही है।
इस स्वतंत्रता दिवस पर हरजिंदगी के अभियान 'आजाद भारत, आजाद नारी' के जरिए हम महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव, अन्याय और असमानता से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करेंगे। तो चलिए जानते हैं कि क्यों आज भी महिलाओं को राजनीति में भागीदारी की नहीं है आजादी।
इलेक्शन कमीशन की रिपोर्ट ने बताई महिलाओं की राजनीति में भागीदारी की असलियत
पिछले कुछ समय में महिला वोटर की भागीदारी में तो अच्छी-खासी बढ़त देखी गई है, लेकिन इसके बावजूद राजनीति के मैदान में वे सबसे पीछे हैं। इलेक्शन कमीशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 के चुनावों में भाग लेने वाले आठ राज्यों में से सात में महिला मतदाता भागीदारी में वृद्धि देखी गई थी।
हालांकि, यह एक बड़ी उम्मीद है और अच्छी बात यह थी कि नगरपालिका, राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में महिला मतदाताओं के रेशियो में उत्साहजनक वृद्धि हुई। मगर फिर भी उम्मीदवारों के रूप में महिलाओं की संख्या काफी कम थी।
इतना ही नहीं, इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन ने एक डेटा कलेक्ट किया था, जिसमें दिखाया गया कि 17वीं लोकसभी के सदस्यों में केवल 14.44 प्रतिशत महिलाएं ही हैं।
भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) की हालिया रिपोर्ट भी इसी पैटर्न की ओर इशारा करती है और बताती है कि अक्टूबर 2021 तक संसद सदस्यों के बीच मात्र 10.5 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी थी। यही हाल राज्य विधानसभाओं का भी दिखा, जहां विधान सभा में महिला सदस्यों (विधायकों) की संख्या मामूली 9% औसत अनुपात देखा गया।
इसी के साथ भारत अन्य देशों से नीचे गिरता जा रहा है। आंकड़ों पर गौर करें, तो मई 2022 तक पाकिस्तान में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 20 प्रतिशत था, बांग्लादेश में 21 प्रतिशत और नेपाल 34 प्रतिशत था। इस मामले में भारत इन 3 देशों से निचले पायदान पर आ खड़ा हुआ है। ईसीआई के अनुसार, आजादी के बाद से, लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का स्तर 10 प्रतिशत बढ़ने में भी कामयाब नहीं हुआ है।
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भारत में नौकरशाही में महिलाओं की स्थिति क्या है?
नौकरशाही यानि ब्यूरोक्रेसी में भी महिलाओं का यही हाल है। राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर विभिन्न सार्वजनिक सेवा पदों पर महिलाओं की भागीदारी इतनी कम है है उनमें से कुछ रोल्स में उम्मीदवारों के लिए फीस में छूट भी दी जाती है। 1951 और 2020 के बीच पद संभालने वाले 11,569 आईएएस अधिकारियों की कुल संख्या में से केवल 1,527 महिलाएं थीं।
वहीं, साल 2022 तक, आईएएस सचिवों में केवल 14 प्रतिशत ही महिलाएं थीं यानि 92 पदों में से केवल 13 पर महिलाएं थीं। वरिष्ठ पदों में तो यह स्थिति और भी गंभीर है। भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केवल तीन महिला मुख्य सचिव हैं। भारत में कभी कोई महिला कैबिनेट सचिव नहीं रही। गृह, वित्त, रक्षा और कार्मिक मंत्रालय में भी कोई महिला सचिव नहीं रही है।
यूपीएससी परीक्षा में पुरुष और महिला की भागीदारी के बीच भी रहा बड़ा अंतर
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के नए आधिकारिक आंकड़ों में भी यह अंतर देखा गया है। साल 2019 के दौरान, लगभग 3.67 लाख महिला उम्मीदवारों ने यूपीएससी परीक्षा के लिए आवेदन जमा किए थे। हालांकि, इनमें से 1.77 लाख परीक्षा देने के लिए आए और मात्र 1,534 महिलाएं योग्यता मानदंडों को पारित करने में सफल रहीं।
इसकी तुलना में, कुल 7.68 लाख पुरुष उम्मीदवारों ने परीक्षा के लिए आवेदन जमा किए थे। इनमें से 3.90 लाख ने परीक्षा दी। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि महिला उम्मीदवार पुरुषों की तुलना में अपनी सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति चुनने के प्रति इंक्लाइंड रहती हैं (यूपीएससी की परीक्षा के अंतर्गत सरकारी नौकरियां)।
पितृसत्तात्मक समाज और इस नौकरी के साथ पारिवारिक प्रतिबद्धताओं को संतुलित करने वाला दबाव होता है, जिसके कारण महिलाएं सिविल सेवाओं में अपनी भागीदारी नहीं दे पाती हैं। शायद यही कारण है कि ब्यूरोक्रेस में, 2011 और 2020 के बीच केवल 2 प्रतिशत ही वृद्धि देखी गई।
असमान अवसर के कारण राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में है महिलाओं की कमी
जेंडर डिस्पैरिटी किसी एक क्षेत्र में नहीं है। यह राजनीतिक राजनीतिक परिदृश्य में भी बखूबी दिखाई देती है। महिलाओं को हर क्षेत्र में कम आंका जाता है और साथ ही कम पारिश्रमिक, सीमित संसाधन और नेटवर्किंग के सीमित रास्ते उन्हें मिलते हैं। यह विषमता महिलाओं के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी होती है। इसके साथ ही शिक्षा में कमी के कारण भी महिलाओं को पीछे रहना पड़ता है। आज भी लोगों को लगता है कि महिलाओं की जगह किचन और घर में है और इसलिए न वह शिक्षा प्राप्त कर पाती हैं और न अपने निर्णय लेने में कभी सफल हो पाती हैं।
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सामाजिक मानदंड और रूढ़ियां आती हैं आड़े
हमारे देश में महिला के लिए क्या सही है और क्या नहीं, यह सदियों पहले पितृसत्तात्मक समाज तय कर चुका है। पारंपरिक लैंगिक अपेक्षाएं और तमाम रूढ़ियां अक्सर भारत में महिलाओं के अनुभव और कल को आकार देती हैं। ये प्रचलित सामाजिक मानदंड महिलाओं को राजनीतिक करियर में उतरने से हतोत्साहित करते हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि आज भी प्रचलित धारणा यही है कि महिलाओं की प्राथमिक भूमिकाएं एक पत्नी, बहू, बेटी और मां होने के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए। राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के क्षेत्र को आज भी पुरुषों के लिए ही आरक्षित माना जाता है।
आपको नहीं लगता कि देश के इतने महत्वपूर्ण संस्थाओं से महिलाओं का बहिष्कार करना लोकतंत्र के सिद्धांतों को स्थापित करने की संभावनाओं को सीमित करता है? यह सवाल सिर्फ पूछे ही नहीं जाने चाहिए, बल्कि इनका हल निकालना भी महत्वपूर्ण है। अब आप ही बताइए क्या महिलाएं वाकई आजाद है?
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