जून महीने यानी कि आषाढ़ माह के कृष्ण पक्ष की संकष्टी चतुर्थी इस साल 14 तारीख को शनिवार के दिन पड़ रही है। इस दिन भगवान श्री गणेश की पूजा का विशेष विधान है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान श्री गणेश की पूजा करने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है, बुद्धि तीव्र बनती है और गणेश जी की कृपा प्राप्त होती है। आषाढ़ में पड़ने वाली संकष्टी चतुर्थी को इसलिए भी अधिक शुभ माना जाता है क्योंकि यह कृष्णपिंगल संकष्टी चतुर्थी है। ऐसे में आइये जानते हैं ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से कि आखिर कैसे पड़ा आषाढ़ माह की संकष्टी चतुर्थी का नाम कृष्णपिंगल और क्या है इसके पीछे की कथा।
क्या है आषाढ़ माह की संकष्टी चतुर्थी के कृष्णपिंगल नाम पड़ने की कथा?
'कृष्णपिंगल' नाम भगवान गणेश के एक विशिष्ट स्वरूप को दर्शाता है। 'कृष्ण' का अर्थ है काला या श्याम वर्ण और 'पिंगल' का अर्थ है भूरा या लाल-भूरा। इस चतुर्थी पर भगवान गणेश के ऐसे स्वरूप की पूजा की जाती है जिनका रंग श्याम या पिंगल होता है। यानी कि जब भगवान गणेश के आधे शरीर का रंग श्याम वर्ण यानी कि कृष्ण रंग का हो जाता है और आधा शरीर भूरे रंग में रंग जाता है।
यह भी माना जाता है कि इस चतुर्थी पर व्रत रखने से भगवान गणेश भक्तों के सभी कष्टों और बाधाओं को दूर करते हैं जैसे 'संकष्टी' का अर्थ ही संकटों से मुक्ति है। आषाढ़ मास में पड़ने वाली यह चतुर्थी विशेष रूप से समस्याओं का नाश करने वाली मानी जाती है और इसलिए इसे कृष्णपिंगल संकष्टी चतुर्थी कहा जाता है। आषाढ़ की कृष्णपिंगल संकष्टी चतुर्थी की व्रत कथा सुनना भी शुभ है।
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पौराणिक कथा के अनुसार, बहुत समय पहले की बात है, द्वापर युग में माहिष्मति नगरी में महीजित नाम के एक प्रतापी और पुण्यशील राजा राज्य करते थे। वे अपनी प्रजा का पालन-पोषण पुत्रवत करते थे और हमेशा धर्म के मार्ग पर चलते थे। उनके जीवन में कोई कमी नहीं थी, सिवाय एक बात के कि उन्हें कोई संतान नहीं थी। वह संतान सुख से वंछित और अत्यधिक दुखी रहा करते थे।
असल में राजा ने पूर्व जन्म में आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी के दिन एक गाय को प्यासे होने पर भी पानी पीने से रोक दिया था। इस कारण गाय ने क्रोधित होकर राजा को श्राप दिया था। इसी दोष के कारण राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हो पा रही थी। ब्राह्मणों ने राजा को इस दोष से मुक्ति पाने का उपाय बताया। उन्होंने राजा से एक व्रत का विधिवत पालन करने का सुझाव दिया।
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जब राजा ने इस बारे में पूछा तो ब्राह्मणों ने बताया कि राजा को इस दोष से मुक्ति के लिए आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को आने वाली संकष्टी चतुर्थी का व्रत विधि-विधान से करना होगा। इसके बाद राजा ने चतुर्थी तिथि पर भगवान गणेश के एकदंत गजानन स्वरूप की पूजा की, श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराया और वस्त्र दान किये। इस व्रत के प्रभाव से राजा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
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