शिवलिंग भगवान शिव का एक पवित्र और अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीक है। इसे भगवान शिव के निराकार स्वरूप का प्रतिनिधित्व माना जाता है यानी उनका कोई निश्चित रूप या आकार नहीं है बल्कि वे ब्रह्मांड की हर चीज में व्याप्त हैं। शिवलिंग को ब्रह्मांड के निर्माण, पालन और संहार की शक्ति का प्रतीक भी माना जाता है जिसमें पुरुष चेतना और प्रकृति ऊर्जा दोनों का मिलन समाहित है। शिवलिंग की पूजा से मन को शांति मिलती है, नकारात्मकता दूर होती है और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स ने हमें बताया कि शिवलिंग की पूजा जितनी चमत्कारी है उतनी इसकी उत्पत्ति रहस्यमयी है। इसके अलावा, हमारे एक्सपर्ट ने हमें यह भी बताया कि शिवलिंग का अर्थ ज्यादातर लोग जो समझते हैं वो है ही नहीं बल्कि शिवलिंग का अर्थ कुछ और ही है। जिन लोगों को ऐसा लगता है शिवलिंग का अर्थ शारीरिक लिंग से है वह पूर्णतः गलत हैं। शास्त्रों में शिवलिंग का असली अर्थ बताया गया है। ऐसे में आइये जानते हैं शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे और कब हुई थी और क्या है इसका मतलब।
कब और कैसे हुई थी शिवलिंग की उत्पत्ति?
प्राचीन काल में, जब सृष्टि का आरंभ हो रहा था, तब ब्रह्मा और भगवान विष्णु के बीच इस बात पर बहस छिड़ गई कि उनमें से कौन सबसे बड़ा है। दोनों ही खुद को श्रेष्ठ साबित करने लगे और यह विवाद इतना बढ़ गया कि वे एक-दूसरे से युद्ध करने को तैयार हो गए।
तभी अचानक एक विशाल अग्निमय स्तंभ प्रकट हुआ जिसका न तो कोई आदि था और न ही कोई अंत। यह स्तंभ इतना विशाल और चमकदार था कि उसकी तुलना हजारों सूर्यों के तेज से की जा सकती थी। ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही इस स्तंभ को देखकर चकित रह गए।
एक आकाशवाणी हुई जिसमें कहा गया कि जो भी इस स्तंभ के आदि या अंत को खोज लेगा वही सबसे महान होगा। यह सुनकर ब्रह्मा ने एक हंस का रूप धारण किया और स्तंभ के ऊपरी सिरे को खोजने के लिए आकाश की ओर उड़ान भरी।
वहीं, भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया और स्तंभ के निचले सिरे को खोजने के लिए पाताल लोक की गहराई में उतर गए। दोनों ने हजारों वर्षों तक खोज की, लेकिन न तो ब्रह्म देव को स्तंभ का ऊपरी सिरा मिला और न ही श्री विष्णु को निचला सिरा।
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अंत में भगवान विष्णु पुनः लौट आए, लेकिन भगवान विष्णु को अधिक शक्तिशाली न समझा जाए इसके लिए ब्रह्म देव ने झूठ बोल दिया कि उन्हें स्तंभ का ऊपरी सिरा मिल गया है। इस झूठ को साबित करने के लिए उन्होंने केतकी के फूल को अपना गवाह बनाया।
ब्रह्मा के झूठ बोलते ही, उस अग्निमय स्तंभ के बीच से भगवान शिव प्रकट हुए। वे ब्रह्मा के झूठ पर क्रोधित हुए और उन्होंने केतकी के फूल को अपनी पूजा से वर्जित कर दिया। इसके बाद, भगवान शिव ने ब्रह्मा और भगवान विष्णु को बताया कि यह अग्नि स्तंभ उनका निराकार स्वरूप है।
इसके बाद भगवान विष्णु और ब्रह्म देव ने शिव जी से आग्रह किया कि वे किसी ऐसे रूप में प्रकट हों जिसकी पूजा कर सकें। ब्रह्मा और भगवान विष्णु के आग्रह पर, भगवान शिव ने उस अग्नि स्तंभ को एक छोटे शिवलिंग के रूप में परिवर्तित कर दिया।
माना जाता है कि फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी यानी कि महाशिवरात्रि को ही भगवान शिव इस अग्नि स्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे और सबसे पहले ब्रह्मा और भगवान विष्णु ने इस शिवलिंग की पूजा की थी। तभी से शिवलिंग की पूजा की परंपरा शुरू हुई।
क्या है शिवलिंग का अर्थ?
शिवलिंग का अर्थ सिर्फ एक मूर्ति या पत्थर का टुकड़ा नहीं है, बल्कि यह भगवान शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है। 'शिव' का अर्थ है 'कल्याणकारी' और 'लिंग' का अर्थ है 'प्रतीक' या 'चिह्न'। इस तरह, शिवलिंग का शाब्दिक अर्थ हुआ 'कल्याणकारी भगवान का प्रतीक'।
भगवान शिव को आदि और अंत रहित माना जाता है। उनका कोई निश्चित भौतिक रूप नहीं है। शिवलिंग इसी अनंत, निराकार और सर्वव्यापी ब्रह्मांडीय ऊर्जा को दर्शाता है। यह बताता है कि भगवान किसी भी रूप में बंधे हुए नहीं हैं, बल्कि वह हर कण में मौजूद हैं।
शिवलिंग के दो मुख्य भाग होते हैं- निचला भाग जिसे योनि कहते हैं और ऊपरी भाग जो अंडाकार होता है जिसे लिंग कहते हैं। 'योनि' को शक्ति का प्रतीक माना जाता है और 'लिंग' को पुरुष का प्रतीक। इन दोनों का मिलन ही सृष्टि की उत्पत्ति और निरंतरता का द्योतक है।
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यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड पुरुष और प्रकृति के संतुलन से ही चलता है। शिवलिंग ब्रह्मांड के तीन प्रमुख कार्यों उत्पत्ति (जन्म), पालन (जीवन) और संहार (मृत्यु या विलय) का प्रतिनिधित्व करता है। यह जीवन के शाश्वत चक्र को दर्शाता है कि सब कुछ एक ही स्रोत से उत्पन्न होता है।
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