भगवान शिव कैसे बने 'त्रिशूली', 'डमरूधारी' और 'नागधारी', जानें क्या है इनके पीछे की दिव्य कथा?

भगवान शिव का त्रिशूल सृष्टि, स्थिति और संहार का प्रतीक है। यह तीन गुणों जिसमें सत्व, रजस और तमस शामिल है। इसका भी प्रतिनिधित्व करते हैं। अब ऐसे में भगवान शिव को त्रिशूली, डमरूधारी और नागधारी कैसे मिला। इसके पीछे की कथा बेहद रोचक है। आइए इस लेख में विस्तार से जानते हैं। 
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भगवान शिव, हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं, जिन्हें अक्सर 'देवों के देव महादेव' कहा जाता है। उनके अनेक रूप हैं, जिनमें त्रिशूल, डमरू और नाग उनके सबसे प्रमुख प्रतीक हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये प्रतीक उनके साथ कैसे जुड़े? आपको बता दें, देवों से लेकर दानव तक भगवान शिव के भक्त हैं। महादेव को भोलेनाथ, शंकर, नीलकंठ और न जाने कितने नामों से पुकारा जाता है। भगवान शिव का स्वरूप जितना रहस्यमय है, उतना ही आकर्षक भी।

उनके मस्तक पर चंद्रमा विराजमान है, जो शीतलता और शांति का प्रतीक है। उनकी जटाओं से गंगा नदी निकलती है, जो पवित्रता और जीवनदायिनी शक्ति को दर्शाती है। गले में सर्प लिपटा रहता है, जो काल और मृत्यु पर उनकी विजय का सूचक है। उनके शरीर पर भस्म लगी होती है, जो वैराग्य को दर्शाती है। अब ऐसे में सवाल है कि भगवान शिव को त्रिशूल, डमरू और गले में नाग कैसे मिला है। इसके पीछे की कथा बेहद रोचक है। आइए इस लेख में ज्योतिषाचार्य पंडित अरविंद त्रिपाठी से विस्तार से जानते हैं।

भगवान शिव को कैसे मिला त्रिशूल?

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पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव ने सृष्टि की रचना में सहयोग किया, तब उन्होंने अपने स्वयं के तेज से त्रिशूल का निर्माण किया। यह तीनों गुणों (सत्व, रजस, तमस) का भी प्रतिनिधित्व करता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, त्रिशूल भगवान शिव को स्वयं प्रकृति ने प्रदान किया था, ताकि वे सृष्टि में संतुलन बनाए रख सकें और दुष्ट शक्तियों का संहार कर सकें। यह त्रिशूल ही है जो शिव को 'त्रिशूली' बनाता है।

भगवान शिव ने कैसे किया डमरू धारण?

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ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने पहली बार तांडव नृत्य किया, तब डमरू की ध्वनि से ही संस्कृत व्याकरण के सूत्र उत्पन्न हुए थे। यह ध्वनि 'ओम' के आदि नाद का प्रतिनिधित्व करती है, जिससे संपूर्ण ब्रह्मांड का उद्भव हुआ। डमरू की ध्वनि से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। यह प्रतीक शिव को 'डमरूधारी' के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

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भगवान शिव कैसे बनें नागधारी?

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समुद्र मंथन की कथा के अनुसार, जब देवता और असुर अमृत प्राप्त करने के लिए मंथन कर रहे थे, तब भयानक विष 'हलाहल' उत्पन्न हुआ। इस विष की तीव्रता इतनी अधिक थी कि यह संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब भगवान शिव ने इस विष को अपने कंठ में धारण कर लिया और नीलकंठ कहलाए। इस प्रक्रिया में नाग वासुकी ने भी शिव की सहायता की और विष को शिव के गले में रोकने में मदद की। तभी से वासुकी शिव के गले में लिपटे रहते हैं, जो काल पर विजय, मृत्यु पर नियंत्रण का प्रतीक है। इसी कारण उन्हें नागधारी कहा जाता है।

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Image Credit- HerZindagi

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