हाल ही में केरल के कोल्लम के सरकारी मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल ने लिविंग विल इन्फॉर्मेशन काउंटर की शुरुआत की है, जिससे लिविंग विल के बारे में जागरूकता को बढ़ाया जा सके और लोगों को बताया जा सके कि कैसे एक व्यक्ति लिविंग विल के जरिए मरने के तरीके को लेकर अधिकार पा सकता है। इस तरह का काउंटर पहली बार भारत में स्थापित किया गया है, तो आइए जानते हैं कि लिविंग विल क्या है और इच्छा मृत्यु से यह अलग कैसे है?
लिविंग विल क्या है?
लिविंग विल एक लिखित कानूनी दस्तावेज है, जिसे 18 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति तैयार करवा सकता है। इस वसीयत में पहले से लिखा होता है कि अगर फ्यूचर में आपको कोई गंभीर या लाइलाज बीमारी हो जाती है, तो आपको मेडिकल ट्रीटमेंट दिया जाए या नहीं। यह विल केवल स्वास्थ्य से जुड़ा होता है और इसका संपत्ति से कोई लेना-देना नहीं होता है।
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लिविंग विल कब लागू होता है?
लिविंग विल तब लागू होता है, जब कोई व्यक्ति कोमा या मानसिक तौर पर कार्य करने की क्षमता खो देता है। वह यह बताने में सक्षम नहीं होता है कि उसे इलाज चाहिए या नहीं। तब प्रभावी रूप से लिविंग विल व्यक्ति को उन परिस्थितियों में सम्मान के साथ मरने के अपने अधिकार का प्रयोग करने की अनुमित देता है। उदाहरण के तौर पर, कोई भी 18 साल से ऊपर का व्यक्ति लिविंग बिल में लिख सकता है कि उसे लाइफ सपोर्ट मशीन पर रखा जाना है या नहीं।
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत में लोगों को लिविंग बिल बनाने की अनुमति प्रदान कर दी थी, जिससे वे पैसिव यूथेनेशिया चुन सकते हैं। आपको बता दें कि एक्टिव यूथेनेशिया का मतलब होता है कि किसी इंसान को जानबूझकर सुसाइड करने में उसकी मदद करना, जो देश में अवैध है।
लिविंग विल कैसे काम करता है?
- लिविंग विल को एडवांस मेडिकल डायरेक्टिव के रूप में भी जाना जाता है। लिविंग विल के लिए आपको इसे हाथ से लिखना होगा।
- आपको इसमें अपना नाम, उम्र, पता और आईडी प्रूफ लगानी होगी और लाइलाज बीमारी या कोमा के मामले में आपकी चिकित्सा उपचार प्राथमिकताएं जैसे- लाइफ-सपोर्ट, वेंटिलेटर, आर्टिफिशियल फीडिंग और Resuscitation के बारे में आपको विशिष्ट निर्देश देने होंगे।
- आखिर में आपको लिखना होगा कि आप स्वेच्छा से यह लिविंग विल बना रहे हैं।
- लिविंग विल को लिखते समय 2 गवाहों की मौजूदगी और सिग्नेचर होना जरूरी होगा।
- इस वसीयत की वैधता को सुनिश्चित करने के लिए इसे प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) द्वारा जांचा जाएगा, जिसमें वह पुष्टि करेंगे कि लिविंग विल स्वेच्छा से लिखा गया है।
- इसके बाद, वह विल का आधिकारिक रिकॉर्ड रखेंगे। फ्यूचर के लिए वह DMO को एक कॉपी भेजेंगे।
- डिस्ट्रिक्ट मेडिकल ऑफिसर लिविंग विल की एक कॉपी अपने पास भी रख लेंगे। जब व्यक्ति गंभीर रूप से बीमार होगा, तो ट्रीटमेंट करने वाले डॉक्टर को विल की जानकारी दे दी जाएगी। डॉक्टर हॉस्पिटल मेडिकल बोर्ड को सूचित करेगा, बोर्ड बीमारी का मूल्यांकन करेगा और निर्णय लेगा कि लिविंग विल का सम्मान करना है या नहीं।
- अगर लिविंग विल स्वीकृत हो जाती है, तो अंतिम पुष्टि के लिए जिला मेडिकल बोर्ड द्वारा इसकी समीक्षा की जाएगी। विल का दुरुपयोग रोकने के लिए निर्णय की निगरानी न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMFC) द्वारा की जाएगी।
लिविंग विल और इच्छा मृत्यु में अंतर
- यह एक कानूनी दस्तावेज है, जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छाएं बताता है कि उसे अगर लाइलाज बीमारी हो जाती है या कोमा में चला जाता है, तो ऐसे स्थिति में उसे क्या मेडिकल ट्रीटमेंट देना है। जबकि इच्छा मृत्यु में किसी व्यक्ति को दर्द से राहत देने के लिए जानबूझकर उसके जीवन को खत्म करने का काम किया जाता है।
- लिविंग विल सुनिश्चित करता है कि अगर कोई इंसान अपने मेडिकल ट्रीटमेंट प्राथमिकताओं को लेकर निर्णय नहीं कर पा रहा है, तो वसीयत में लिखे अनुसार उसका इलाज किया जाए, जबकि इच्छामृत्यु में लाइलाज बीमारी से पीड़ित रोगी के असहनीय दर्द और पीड़ा को खत्म करना है।
- लिविंग विल में कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से मेडिकल ट्रीटमेंट लिखता है, जबकि इच्छामृत्यु स्वैच्छिक और अनैच्छिक हो सकती है।
- लिविंग विल में केवल पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है, जबकि इच्छा मृत्यु में एक्टिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है।
- सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के फैसले के अनुसार लिविंग विल लागू किया था, लेकिन एक्टिव इच्छा मृत्यु अभी भी अवैध बनी हुई है।
- लिविंग विल में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी (JMFC) और मेडिकल बोर्ड के वेरिफिकेशन की के बाद ही पैसिव यूथेनेशिया दिया जा सकता है।
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