सूर्य या चंद्र ग्रहण एक बड़ी खगोलीय घटना होती है जिसका ज्योतिष में भी बहुत महत्व होता है। इस साल का पहला सूर्य ग्रहण 20 अप्रैल, 2023, बृहस्पतिवार के दिन पड़ेगा। ज्योतिष में सूर्य ग्रहण को लेकर कई मान्यताएं हैं जैसे इस दौरान पूजा -पाठ की मनाही होती है। ऐसा माना जाता है कि सूर्य ग्रहण के दौरान कुछ भी खाना या पीना नहीं चाहिए क्योंकि इसकी किरणों से भोजन विषाक्त हो सकता है। इस दौरान घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए।
इन्हीं मान्यताओं से जुड़ी एक और बात है इस दौरान कुशा या दरभा घास का इस्तेमाल करना। दरभा या कुशा घास एक विशेष प्रकार की घास है जिसका उपयोग हिंदू अनुष्ठानों में शुद्धिकरण प्रक्रिया के लिए किया जाता है।
इस घास को कोई भी यज्ञ या अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति की अनामिका अंगुली में अंगूठी के रूप में पहना जाता है। लेकिन इस घास का इस्तेमाल ग्रहण के दौरान करना उपयोगी क्यों है और इसका महत्व क्या है, इसके बारे में ज्योतिषाचार्य डॉ आरती दहिया जी से विस्तार से जानते हैं।
ग्रहण के दौरान कुशा घास का इस्तेमाल क्यों किया जाता है
ग्रहण के दौरान असामान्य परिणाम के नकारात्मक विकिरण फैलते हैं। इसलिए खासतौर पर गर्भवती महिलाओं को घर से बाहर न निकलने की सलाह दी जाती है। इस दौरान मंदिर भी किसी दुष्प्रभाव को रोकने के लिए बंद कर दिए जाते हैं।
ऐसा माना जाता है कि इस दौरान मंदिर के कपाट बंद करने से ग्रह पिंडों द्वारा जारी नकारात्मकता के किसी भी बुरे प्रभाव को रोका जा सकता है। ग्रहण की अवधि में एक विशेष कारण से कुशा घास का इस्तेमाल किया जाता है।
कुशा घास (कुशा धारण करके क्यों किया जाता है पितरों का श्राद्ध)को एक्स-रे विकिरण और ग्रहण के दुष्प्रभावों को रोकने के लिए श्रेष्ठ माना जाता है, इसलिए इसे ग्रहण विकिरण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए घर में विभिन्न स्थानों पर रखा जाता है। यही नहीं मंदिर में भी मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए इस घास को रखा जाता है।
सूर्य ग्रहण के दौरान वातावरण में हानिकारक विकिरणों को दूर रखने के लिए रसोई में भी हर खाद्य पदार्थ पर कुशा घास रखी जाती है। ग्रहण के बाद कुशा घास के बिना कोई भी भोजन दूषित माना जाता है और सेहत को ठीक रखने के लिए इस भोजन का इस्तेमाल न करने की सलाह दी जाती है।
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कुशा घास का महत्व
दरभा या कुशा घास हिंदू रीति-रिवाजों की पूजन सामग्रियों में से एक विशेष है। पुराणों और उपनिषदों में वर्णित है कि समुद्र मंथन, ब्रह्मांडीय महासागर के मंथन के बाद यह घास अस्तित्व में आई।
जब देवता और दानव दूध सागर का मंथन करने के लिए तैयार हुए, तो मंदार पर्वत के आधार को सहारा देने वाला कोई नहीं था। उस समय भगवान विष्णु ने कच्छप का रूप धारण किया। मंथन के दौरान कछुए के शरीर से बाल बाहर निकले और किनारे पर बह गए। ये बाल कुशा घास में बदल गए। उसी समय से कुशा घास का महत्व बढ़ गया। समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत प्राप्त हुआ, तो अमृत के अनुचित संचालन के कारण, अमृत की कुछ बूंदें इस घास पर गिर गईं। इसकी वजह से यह घास अधिक पवित्र मानी जाने लगी।
कुशा घास में होते हैं शुद्धिकरण गुण
ज्योतिष में ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथनके दौरान अस्तित्व में आने की वजह से कुशा घास में भगवान विष्णु की शक्ति होती है। इस घास में अपार शुद्धिकरण के गुण होते हैं। कुशा घास को शुद्ध करने वाली वस्तु के रूप में जाना जाता है इसलिए ही पूजा में घास का उपयोग पवित्र जल छिड़क कर पूजा की विभिन्न वस्तुओं को शुद्ध करने के लिए किया जाता है।
किसी भी शुद्धिकरण अनुष्ठान के लिए इसका उपयोग किया जाता है। यही नहीं यज्ञ आदि में भी पूजन करने वाला व्यक्ति इस घास की धारण करना है, जिससे पूजा का पूर्ण फल मिल सके। यदि इस घास से बना आसन पूजन में इस्तेमाल होता है तो इस घास की वजह से पवित्रता बढ़ जाती है।
इस प्रकार यदि आप किसी न किसी रूप में कुशा घास का इस्तेमाल घर में करती हैं तो इसकी शुद्धता बनी रहती है।
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