आज बेशक म्यूजिक इंडस्ट्री में नए-नए इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट्स ने अपनी जगह जरूर बना ली है, लेकिन वो कहते हैं ना ओल्ड इज गोल्ड.... तबला या शहनाई की जगह कोई नहीं ले सकता। यह ऐसे इंस्ट्रूमेंट्स है जिसकी संगत से न सिर्फ संगीत अच्छा लगने लगता है, बल्कि कानों को सुकून का भी एहसास होता है।
अगर हम बात करें शहनाई की तो यह सिर्फ इंस्ट्रूमेंट नहीं है, बल्कि एक इमोशन भी है जिससे बचपन की यादें भी जुड़ी हुई हैं। लड़की की शहनाई.... जिसे बेचते हुए एक अंकल को हर गली-कूचे पर जरूर देखा जाता था..अलग ही खुशी होती थी। इस लड़की की शहनाई को हम बजाकर खुद को शहनाई की दुनिया का उस्ताद समझते थे।
मगर क्या आप शहनाई की असली दुनिया के उस्ताद से वाकिफ हैं? अगर नहीं, तो बता दें शहनाई के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जिन्हें संगीत शहनाई की दुनिया से बेहद लगाव था, तो आइए एक नजर संगीत की दुनिया के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां पर डालते हैं।
शहनाई की दुनिया के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को कमरुद्दीन के नाम से भी जाना जाता है। यह उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का बचपन का नाम है, जिनका जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के बक्सर जिले में हुआ था।
यह एक मुस्लिम परिवार के बेटे थे, जिनके पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद के दरबार में काम शहनाई बजाते थे। इसलिए शहनाई बजाने का शौक उस्ताद को बचपन से ही था।
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कहा जाता है कि बिस्मिल्लाह खां छह साल की उम्र में अपने पिता के साथ बनारस आ गए थे और इसके बाद ही उन्होंने शहनाई बजाना सीखी। तब बिस्मिल्लाह खां अपने चाचा के साथ बनारस के घाट पर जाते और वहां बैठकर शहनाई बजाना सीखते। इसके बाद उनके चाचा ने उन्हें काशी विश्वनाथ मंदिर में अपने साथ शहनाई बजाने का मौका दिया।
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बता दें उनके चाचा अली बख्श श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई वादन किया करते थे। बिस्मिल्लाह खां को शहनाई सिखाने के बाद दोनों मिलकर मंदिरों और हिंदू शादियों में शहनाई बजाने लगे। (काशी विश्वनाथ मंदिर की इन अनोखी बातों के बारे में जानती हैं)
आपको जानकर हैरानी होगी कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां काशी को जन्नत मानते थे। ऐसा कहा जाता है कि बिस्मिल्लाह खां काशी से कहीं भी बाहर जाएं, लेकिन बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुंह करके ही बैठते थे। अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों तो बता दें कि बिस्मिल्लाह खां बनारस के उस्ताद किताब में उल्लेख मिलता है कि काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत परंपरा रही है।
वहीं, बिस्मिल्लाह खां ने भी शहनाई बजाने की कला काशी से ही सीखी थी। साथ ही, हनुमान जयंती के अवसर पर होने वाले कार्यक्रम में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां भी शिरकत करते थे। यह कार्यक्रम बालाजी मंदिर में हुआ करता था।
उस्ताद का जलवा सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी देखा जा सकता था। उन्होंने अफगानिस्तान, यूएसए, कनाडा, बांग्लादेश, ईरान, इराक, वेस्ट अफ्रीका जैसे देशों में अपनी शहनाई का जलवा बिखेरा है।
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यहां पर भी अपनी कला से लोगों को दीवाना बना दिया। इसके बाद उन्होंने कई कार्यक्रमों में भाग लिया और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन आदि पुरस्कार भी अपने नाम किए। (ऑस्कर अवॉर्ड के बारे में जानें)
यह थी उस्तादों के उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की कहानी, जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक शहनाई का साथ नहीं छोड़ा था। अगर हमारी स्टोरी से जुड़े आपके कुछ सवाल हैं, तो वो आप हमें आर्टिकल के नीचे दिए कमेंट बॉक्स में बताएं।
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