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पुरुषों से महिलाओं की तुलना कितनी सही कितनी गलत?

 वक्‍त और महिलाओं की सोच ने उन्‍हें काफी आगे पहुंचा दिया है। मगर, आज के दौर में भी पुरुषों से उनकी तुलना बंद नहीं हुई है। इस बात का जिक्र दैनिक जागरण ग्रुप की प्रेसिडेंट अपूर्वा पुरोहित ने भी अपने ब्‍लॉग 'Women @ Work' में किया हैं। आइए जानते हैं कि यह तुलना सही है या गलत। 
Her Zindagi Editorial
Updated:- 2018-12-07, 17:55 IST

‘तुम मेरी बेटी नहीं बेटा हो।’

‘अपने आपको कमजोर मत समझो, पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चलो’

‘औरतों की तरह रोना छोड़ो मर्द बनो।’

‘बेटी हो कर भी तुमने बेटे का फर्ज अदा किया है।’

यह कुछ ऐसी उपमाएं हैं जो आज के दौर में भी महिलाओं को दी जाती हैं और महिलाएं भी इन्हें सुन कर कभी-कभी गर्व महसूस करती हैं। मगर, क्या वाकई महिलाओं को यह सब सुन कर खुश होना चाहिए? क्या वाकई अभी उन्हें इन शब्दों की सहारे की जरूरत है? शायद नहीं, क्योंकि महिला और पुरुष एक बराबर हैं। यहां, सिर्फ सोच और नजरिया बदलने की जरूरत है। हम विज्ञान के युग में हैं। यहां जो तकनीक और आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलकर चल रहा है वही आगे। महिला हो या पुरुष दोनों को समान अवसर मिलना चाहिए मगर इसके लिए जरूरी नहीं की महिलाएं मर्द जैसे काम करें या उनके जैसी लाइफस्टाइल बना लें। जागरण ग्रुप की प्रेसिडेंट अपूर्वा पुरोहित भी इस बात का समर्थन करती हैं। अपूर्वा ने इस विषय पर एक किताब ‘नारी, मर्द बनना नहीं जरूरी’ लिखी है। इस किताब में उन्होंने बताया कि हर महिला को खुद को सुपर हीरो समझना चाहिए और पुरुषों से किसी भी तरह का कॉम्पिटीशन नहीं करना चाहिए। 

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तय करिए विकटम हैं या हीरोइन 

कई बार महिलाएं खुद ही यह सोच कर बैठ जाती हैं कि वह महिला हैं और कुछ काम उनके दायरे से बाहर हैं। मगर, हर व्यक्ति अपने दायरे खुद ही बनाता है। जिस दिन महिलाएं दायरे में बंधना छोड़ दें उस दिन न तो वह कभी विकटम बनेंगी और न ही उन्हे अपनी तुलना कभी मर्दो से करनी होगी। काम कोई भी हो उसे करने के लिए महिला या पुरुष होने की जरूरत नहीं होती बल्कि उस कार्य को सफलतापूर्व करने के लिए इच्छाशक्ति और दिमाग की जरूरत होती हैं।

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वो हैं बैटमैन तो आप है वंडर वुमन 

पुरुषों की बराबरी करने के लिए सुपरमैन मत बनिए बल्कि वंडर वुमन बनिए। एक जमाना था जब लड़कियों को स्कूल भी नहीं भेजा जाता था मगर महिलाओं ने अपनी क्षमता को समझा और आज वह बॉर्डर पर दुश्मनों का सामना कर रही हैं। यहां उनकी तुलना पुरुषों करना अनिवार्य नहीं है बल्कि उनकी क्षमता को सराहना अनिवार्य है। हर व्यक्ति की अपनी क्षमता होती है और उसके आधार पर ही वह काम कर पाता है। इसमें महिला और पुरुष का भेद-भाव बीच में लाना सही नहीं है। बस इतना समझ लीजिए कि अगर पुरुष बैट मैन हैं तो महिलाएं वंडर वुमन हैं। इस बात को हाल ही में तेलंगाना में आईपीएस अफसर बनी सिंधू शर्मा ने सच साबित किया है। सिंधू शर्मा एसपी हैं और उनके फादर उमा महेश्वरा शर्मा मलकानगिरी में डीसीपी हैं। एक रैली के दौरान पिता और पुत्री ने अनोखी मिसाल कायम की है जिसकी चर्चा आजकल सोशल मीडिया में जोर-शोर से हो रही है। दरअसल पद में उपर होने के कारण रैली में जब डीसीपी पिता के सामने एसपी बेटी आई तो पिता ने पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए सभी के आगे उसे सलामी दी। यहां यह बात साबित हो जाती है कि क्षेत्र और काम कोई भी हो उसे महिलाएं और पुरुष दोनों कर सकते हैं।

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पुरुषों को क्यों नहीं दी जाती हैं महिलाओं वाली उपमाएं 

कई बार ऐसा होता है कि जो काम महिलाएं बखूबी कर लेती हैं वही काम पुरुष उनसे भी ज्यादा अच्छा कर लेते हैं। उदाहरण के तौर पर आप एक पुरुष शेफ को ही ले लीजिए। भारतीयों की सोच है कि रसोई संभालना महिलाओं का काम हैं, मगर इस काम में आज पुरुष भी माहिर हैं। मगर, हम उन्हें तो कभी नहीं कहते कि ‘तुम तो मेरी बेटी की कमी पूरी करते हो।’ मगर महिलाओं को जो पुरुषों से तुलना करने वाली उपमाएं दी जाती हैं वहीं से यह तुलना का विचार जन्म लेता है।

 

अपूर्वा पुरोहित अपने ब्लॉग ‘Women@Work’ में लिखे लेख ‘Women Superheroes are out to save the world, we should too’ लिखती हैं, ‘महिलाओं की तुलना पुरुषों से करने से अच्छा है उन्‍हें महिलाएं ही रहने मगर, उनके पोटेंशियल को नजर अंदाज न करें।’     

 

         

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