"सतयुग में दानव अलग लोक में रहते थे और देवता अलग लोक में रहते थे।
त्रेता युग जब आया तब दानव और देवता एक ही लोक में रहने लगे।
द्वापर युग आया तब देव और दानव एक ही परिवार में रहने लगे।
अब जिस युग में हम और आप रहते हैं यानि कलयुग इसमें देव और दानव दोनों एक देह के अंदर ही रहते हैं।
इसलिए आज के समय में रामायण और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो जाती है। यदि राम रूपी ऊर्जा हमारे शरीर के अंदर ऊपर की ओर गमन करती हैं तो राम में परिवर्तित हो जाती है और यदि नीचे की और गमन करती हैं तो रावण में परिवर्तित हो जाती है। तो यह ऊर्जा का ही रूपांतरण है, जो हमें कभी राम तो कभी रावण बनने पर मजबूर कर देता है। तो परमात्मा हमारे अंदर खोया हुआ नहीं है बल्कि सोया हुआ है।"
यह कहा है बेमिसाल अभिनेता, लेखक, चिंतक विचारक आशुतोष राणा जी का। जिनका मानना है कि राम मंदिर तो बन गया है मगर अब मन के रावण को भी तो मारना होगा। राम के केवल चरणों तक सीमित रहने से काम नहीं बनेगा बल्कि अब हमें उनके आचरणों को भी अपने अंदर धारण करना होगा और यह कैसे हो सकता है, इस पर हरजिंदगी ने आशुतोष जी से विस्तार में बातचीत की।
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इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान समय में हम सभी बहुत ज्यादा सोशल हो चुके हैं और हमारे पर ऐसे-ऐसे प्लेटफॉर्म हैं, जहां हमें दूसरे की जिंदगियों में झांकने का भरपूर मौका मिलेगा। मगर हम इतना सोशल हो चुके हैं कि हमें दूसरों के बारे में खुद से ज्यादा ही पता रहता है। हम दूसरों से तो जुड़ चुके हैं, मगर स्वयं से जुड़ना अभी बाकी है।जिस दिन हम खुद से जुड़ जाएंगे और खुद को जानने लग जाएंगे, तब हम अपने लिए क्या सही है और क्या गलत यह जान जाएंगे। आशुतोष संतों की एक कहावत भी सुनाते हैं , "अर्थ धर्म काम मोक्ष यह चार चीजें पुरुषार्थ चतुष्टय में आती हैं। हमारा जीवन भी या तो कर्म प्रधान है या फिर प्रारब्ध प्रधान है। इसमें अर्थ और काम में प्रारब्ध की प्रमुखता होती है और धर्म एवं मोक्ष में कर्म की प्रमुखता होती है। तो जिन गुणों की बात हम कर रहे हैं, वे धर्म और मोक्ष के अंदर आती हैं और इसके लिए हमें पुरुषार्थ ही करना होगा।"
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आशुतोष जी कहते हैं, " हम सभी श्री राम के गुण गा रहें है, मगर हम केवल उनके चरणों तक ही सीमित रह जाते हैं और उनके आचराों को धारण नहीं करते हैं। जिस दिन हम श्री राम के आचरणों को भी अपने अंदर धारण कर लेंगे उस दिन हमारे अंदर का रावण मर जाएगा।" वाकई वर्तमान समय में हम लोगों के अंदर भावनाएं तो हैं, इसलिए जब भी कि अनहोनी के बारे में सुनते हैं तो भावुक हो जाते हैं, मगर हम संवेदनशील नहीं हैं। हमें कुछ बुरा होता है तो दुख होता है, मगर जिस दिन हम अपनी संवेदनाओं को जागृत कर लेंगे, तब हम कुछ बुरा होने पर उसे रोकने का प्रयास करें। तब हमारे अंदर को भी रावण मरेगा और इस संसार में मौजूद रावण भी मर जाएंगे।
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आत्मा हो, महात्मा हो या परमात्मा हो, इन सभी में मां शब्द आता है और तब ही यह पूर्ण होते हैं। इसलिए मां को सशक्त होने की जरूरत नहीं है बल्कि उसे सम्मान देने की जरूरत है। जब आप इस बात को समझ जाएंगे, उस दिन यह सारी उपलब्धियां आपको मिल जाएंगी। आशुतोष जी मां के ऊपर एक बहुत अच्छी कविता भी सुनाते हैं-
मुक्त पवन का मनमौजीपन जीवन का आनंद कहां है,
बेटा कहकर जहां छाती से लिपटाती मां है
मां जिस पर रीझी मुख चूमा, वही सलोना राम हो गया
और जिसकी हलक सवार डिठौना लगा दिया वही घनश्याम हो गया।
जिन्हें बांस के धनुष सनोड़ी के तीरों से खेल खिलाए
वही जगत में अर्जुन जैसे कुशल धनुषधारी बन आए
गिरि उखाड़ जो गेंद सरीखा धरे हथेली पर फिरता था हनुमान
अंजनी सुत के भुजदंडों में दूध जननी का ही बहता था
मीठे बो श्रवण कर मां ने पुलप अधर जिसके चूमे
तानसेन बन गया की जिसकी तानों दिग्गज झूमेझूमे है
मां गाऊ को कह दिया सभी के शीश झुके चरणों के नीचे
मां तुलसी को कहा सभी ने श्रद्धा से अपने हग मीचे
मां धरती को कहा हजारो वीर खड़े कट गए हंसकर
और मां गंगा को कहा नदी का पानी हुआ अमृत से बढ़कर
वह अनादी ओमकार वेद भी जिसको नियति नियती कहते हैं
सदे हुए ब्रह्माण्ड अनेकों जिसके कण-कण में रहते हैं
होगा वो भगवान किसी का उसको ही प्रभुता दिखलाए माता के आगे आना है
तो नन्हा रोता ही है ऐसी दिव्य नजर प्राणों में जिस दिन साथी तुम्हें मिलेगी
मां की एक-एक झुर्रि में तुम्हें वेद की ऋचा दिखेगी।
कुपित पिता को देख लाडला दूर नजर से भाग जाता है
और मां मारे तो बचने बच्चा मां से और लिपट जाता है।
पिता यदि जड़ है तो मां का प्यार डाल जैसा होता है
फूलों को संबंध जड़ों से अधिक डाल से ही होता है। ....
उम्मीद है कि आशुतोष राणा से हुई बातचीत के यह चंद अंश आपको पसंद आए होंगे। उनकी सोच और समझदारी भीर बातों से आपको प्रेरित भी किया होगा।
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