अलग-अलग राज्‍यों की आर्ट को साडि़यों में पिरो रही है यह 60 बरस की फैशन डिजाइनर

फैशन इंडस्ट्री से चित्रलेखा का जुड़ाव भी ज्‍यादा पुराना नहीं है मगर उनकी डिजाइन की हई साडि़यों ने बहुत कम समय में ही उन्‍हें एक अलग पहचान दिला दी है। 

at the age of  chitralekha turned her hobby in profession  ()

सुजात्रा, इस शब्‍द का अर्थ होता है एक खुबसूरत सफर और इस सफर की यात्री हैं पूणे की 60 बरस चित्रलेखा दास। पेशे से फैशन डिजाइनर चित्रलेखा का यह सफर ज्यादा पुराना नहीं, उन्‍हें इस सफर पर निकले 6 बरस ही हुए हैं। मगर आज उनकी गिनती देश की सफल और कामयाब महिलाओं में होती है। देश के कोने कोने में घूम चुकीं चित्रलेखा अपने अनुभव को फैशन के साथ इस तरह घोलती हैं कि एक अनोखा ही कॉम्‍बीनेशन तैयार हो जाता है। वैसे फैशन इंडस्ट्री से उनका जुड़ाव भी ज्‍यादा पुराना नहीं है मगर उनकी डिजाइन की हई साडि़यों ने बहुत कम समय में ही उन्‍हें एक अलग पहचान दिला दी है। दरअसल चित्रलेखा की डिजाइन की हुई साडि़यां आम साडि़यों से एकदम अलग होती हैं। वह अपनी साडि़यों में पैच वर्क से डिजाइन और पैटर्न बनाती है, यह काम उनकी साडि़यों को फैश‍न की दुनिया में एक अलग ही मुकाम पर ले जा चुका है।

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कैसे हुई सफर की शुरुआत

चित्रलेखा का सफर उनके काम जितना ही रोचक है। भले ही चित्रलेखा आज फैशन इंडस्‍ट्री का हिस्‍सा हों मगर इससे पहले वह एक स्‍कूल में म्‍यूजिक टीचर हुआ करती थीं। वह बताती हैं,‘फैशन की दुनिया से मेंरा वास्‍ता दूर दूर तक नहीं था। मैंने तो कोई फैशन डिजाइनिंग का कोर्स भी नहीं किया था। मगर चीजों को सजाने संवारने का हुनर मुझमें बचपन से था। घर की देखरेख के दौरान मैं अपने आर्टिस्टिक सेंस को हमेशा इस्‍तेमाल करती थी। मेरा आर्ट से इतना लगवा देख कर मेंरे पेरेंट्स ने मुझे आर्ट सब्‍जेक्‍ट में ही आगे बढ़ाया। मगर तब मुझमें इतनी समझ नहीं थी कि मुझे आर्ट में कौन से विषय का चुनाव करना चाहिए। इस लिए मैंने म्यूजिक से एम ए किया। मगर इससे मैं संतुष्‍ट नहीं थी। मुझे पेंटिंग करने का बड़ा शौक था। मगर इस अपने इस शौक को मैने किसी पर जाहिर नहीं किया था।’ अपने शौक को दिल में दबाए रहने कि चित्रलेखा को सजा भी मिली। वह कभी इसे आगे नहीं बढ़ा सकीं। स्‍कूल में टीचर के लिए एप्‍लाय किया तब भी उन्‍हें म्‍यूजिक टीचर के तौर पर ही नौकरी मिली। मगर एक काम जो अच्‍छा हुआ वह यह था कि चित्रलेखा ने खुद को अपने इस शौक से कभी दूर नहीं किया था।

शौक ने दिया नेम और

चित्रलेखा का बचपन का शौक आज उनकी साड़ियों में बाखूबी दिखाई देता है। वह बेहद दिलचस्प तरीके से साडि़यों को डिजाइन करती हैं। सबसे खास बात तो यह है कि उनकी बनई साडि़यों में विभिन्‍न कलाओं का संगम होता दिखता है। वह बताती हैं, ‘मेरे पति डिफेंस में थे इसलिए भारत के लगभग साभी राज्यों में मैं रेह चुकी हूँ। इस वजह से हर राज्य की कला को मैंने करीब से देखा और समझा है। मैं अपने इसी अनुभव को साड़ियों को बनाने में इस्तेमाल करती हूँ।’ चित्रलेखा कि बनाई साडि़यों में एक साथ कई आर्ट को मर्ज होते देखा जा सकता है। इस बारे में वह बताती हैं, मैं मिक्‍स एंड मैच करके अलग अलग आर्ट फॉर्म को एक ही साड़ी में उकेरने की कोशिश करती हूं। इससे साड़ी में एक अनोखापन सा आ जाता है।

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आसान नहीं थी राहें

उम्र के 60 वें पड़ाव पर आकार एक नए क्षेत्र में किस्मत आजमाना चित्रलेखा के लिए बहुत बड़ा जोखिम था मगर उन्‍होंने हार नहीं मानी। इसमें उनका साथ उनकी दोनों बहुओं सुजाता और सुष्मिता ने भी दिया। उनके प्रोत्साहित करने पर ही चित्रलेखा ने अपने कदम आगे बढ़ाए और हर चुनौती का डट कर सामना किया। वह बताती हैं, ‘उम्र बढ़ने के साथ मेरे लिए स्‍कूल जाना मुश्किल हो रहा था। मगर घर पर खाली बैठने की आदत मुझमें शुरू से नहीं थी। स्‍कूल से आने के बाद भी कुछ न कुछ करती ही रहती थी। स्‍कूल छोड़ने के कुछ दिन बाद तक मैं घर पर ही रहती थी। खालीपन से मुझे डिप्रशेन होने लगा था। मैं पेंटिंग करती हूं यह बात मेंरी बहुओं को पता थी। उन्‍होंने मुझे पेंटिंग करने के लिए कहा। मगर मैं कुछ प्रोडक्टिव करना चाहती थी। बहुओं के हौसला बढ़ाने पर मैंने एक चद्दर पेंट की। इसके लिए मैंने ज्‍यादा पैसे वेस्‍ट नहीं किए। बाजार से कपड़ों की कतरन तौल में लेकर आई फिर उन्‍हें आपस में जोड़ा और चद्दर तैयार की। इसके बाद उसमें पेंटिंग बनाई। चद्दर बन गई तो मैंने अपनी पड़ोसन को दिखाया। उसने बहुत तारीफ की और वो चद्दर भी मुझसे खरीद ली। तब मुझे पहली बार इस बात पर कॉन्‍फीडेंस आया कि मैं अपने शौक को फैशन इंडस्‍ट्री में इस्‍तेमल कर सकती हूं और चादर की जगह साडि़यां तैयार कर सकती हूं और यह सोच कर मैं डिजाइनिंग के क्षेत्र में आगे बढ्ने लगी।’

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कैसे मिली कामयाबी

चित्रलेखा ने तय कर लिया था कि अब वो खाली नहीं बैठेंगी और डिजाइनिंग के क्षेत्र में ही कुछ करेंगी। मगर अभी इसके लिए कुछ महनत और बाकी रह गई थी। चित्रलेखा बताती हैं, पेंटिंग का तो मुझे शौक था मगर सिलाई कभी नहीं की थी। इस लिए सबसे पहले मात्र 700 रुपए की सिलाई मशीन खरीदी और काम शुरू कर दिया। अपने काम को अच्‍छे से अच्‍छा करने के लिए रात रात भर चित्रलेखा साड़ियों की डिजाइन बनाती, रंगों के एक्‍सपेरीमेंट करतीं। साथ विभिन्न राज्यों की कलाओं का सही तालमेल बैठातीं और सुबह उठ कर उन सब के मुताबिक साड़ी बनाने में लग जाती । वह बताती हैं, ‘मुझे सबसे अधिक दिक्कत सही टेलर खोजने में आई। मैं जो साड़ियाँ बनती हूँ वह अन्य साड़ियों से बेहद अलग होती हैं। किसी टेलर को समझा पाना कि मुझे क्या चाहिए बड़ा मुश्किल होता था। इसलिए मैंने दो महिलओं को सिलाई सिखाई और नौकरी दी। ’सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि चित्रलेखा ने जिन महिलाओं को सिलाई सिखाई वे कोई और नहीं बल्कि उन्हीं के घर में काम करने वाली मेड थीं। वह बताती हैं, ‘मैं अपने घर की दोनों मेड्स को स्टिचिंग सिखाई। इसके लिए उन्हे बहुत समझाना पड़ा। आखिर कब तक वे घरों में जा कर काम करतीं। उन्हें मशीन दिलवाई। आज दोनों ही मेरे घर के काम के साथ ही साड़ी बनाने का काम भी करती हैं। ’ चित्रलेखा कभी दिन में 20 तो हफ्ते भर में 1 साड़ी बना पाती हैं। वह कहती हैं, ‘सब कुछ साड़ी की डिजाइन पर निर्भर करता है।’ चित्रलेखा की साड़ियाँ सुजात्रा ब्रांड से उन्हीं के ऑनलाइन शॉप पर खूब बिकती हैं। चित्रलेखा का सपना है कि जल्द ही वह साड़ियों का एक कैफ़े खोलें जहां महिलाएं आकार कॉफी की चुस्कियों के साथ संगीत सुनें और विभिन्न कलाओं से जुड़ी किताबें पढ़ें और जाते जाते साड़ियाँ खरीद कर जाएँ।

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