why we should not see thakur ji from front

घर हो या मंदिर, ठाकुर जी के दर्शन कभी भी सामने से क्यों नहीं करने चाहिए?

अक्सर घर के बड़े-बुजुर्ग या मंदिर के पुजारी यह सलाह देते हैं कि हमें कभी भी ठाकुर जी की प्रतिमा के बिल्कुल सामने खड़े होकर दर्शन नहीं करने चाहिए। यह केवल एक परंपरा नहीं है बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक कारण छिपे हैं। 
Editorial
Updated:- 2025-12-23, 14:52 IST

हिंदू धर्म और भारतीय परंपराओं में भगवान की भक्ति और पूजा-अर्चना के गहरे आध्यात्मिक अर्थ होते हैं। अक्सर घर के बड़े-बुजुर्ग या मंदिर के पुजारी यह सलाह देते हैं कि हमें कभी भी ठाकुर जी की प्रतिमा के बिल्कुल सामने खड़े होकर दर्शन नहीं करने चाहिए। यह केवल एक परंपरा नहीं है बल्कि इसके पीछे वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक कारण छिपे हैं। चाहे घर का छोटा सा मंदिर हो या बांके बिहारी जैसा भव्य धाम, दर्शन करने का एक विशेष सलीका होता है जो भक्त और भगवान के बीच के संबंध को और अधिक गहरा और सुरक्षित बनाता है। आइये जानते हैं वृंदावन के ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से कि आखिर क्यों कभी भी ठाकुर जी के दर्शन सामने खड़े होकर नहीं करने चाहिए? 

ठाकुर जी के दर्शन सामने खड़े होकर क्यों नहीं करने चाहिए?

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा के माध्यम से अपार सकारात्मक ऊर्जा और 'तेज' समाहित होता है। विशेष रूप से ठाकुर जी यानी कि श्री कृष्ण की आंखों में सबसे ज्यादा शक्ति मानी जाती है।

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जब हम सीधे उनकी आंखों के सामने खड़े होते हैं तो उस तीव्र ऊर्जा को हमारा सामान्य शरीर सहन नहीं कर पाता। यह वैसा ही है जैसे सीधे सूरज की ओर देखने पर आंखें चौंधिया जाती हैं। किनारे से दर्शन करने पर हम उस ऊर्जा को धीरे-धीरे और सौम्य तरीके से ग्रहण कर पाते हैं।

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भगवान के बिल्कुल सामने सीधे खड़े होना 'अहंकार' का प्रतीक माना जा सकता है जैसे हम किसी बराबरी वाले व्यक्ति के सामने खड़े हों। इसके विपरीत, थोड़ा तिरछा या हटकर खड़े होना 'विनम्रता' और 'दास्य भाव' को दर्शाता है।

जब हम किनारे खड़े होकर झुककर दर्शन करते हैं तो हमारे भीतर यह भाव जागता है कि हम ईश्वर के चरणों के सेवक हैं। यह विनम्रता ही हमारी प्रार्थना को ईश्वर तक पहुंचाने का माध्यम बनती है।

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भक्ति शास्त्र के अनुसार, भगवान के दर्शन किश्तों में करने चाहिए। पहले चरणों के फिर कमर के और फिर वक्षस्थल के एवं अंत में मुखारविंद यानी कि चेहरे के। अगर हम सीधे सामने खड़े हो जाएं तो हमारा ध्यान भटक सकता है।

किनारे से खड़े होकर हम बारीकी से उनके स्वरूप को निहार सकते हैं। ब्रज की परंपरा में तो भगवान को 'नजर' लगने का भाव भी होता है, इसलिए भक्त सीधे सामने खड़े होकर उन्हें एकटक नहीं देखते ताकि उनके आराध्य को किसी की नजर न लगे।

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वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो मंदिरों में मूर्तियों को ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहां पृथ्वी की चुंबकीय तरंगें सबसे अधिक होती हैं। मूर्ति के बिल्कुल सामने इन तरंगों का केंद्र होता है। सीधे सामने खड़े होने के बजाय थोड़ा हटकर खड़े होने से ये तरंगें हमारे शरीर के चक्रों को धीरे-धीरे प्रभावित करती हैं।

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image credit: herzindagi 

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