खाटू श्याम जी, जिन्हें 'हारे का सहारा' और 'तीन बाण धारी' के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्रीकृष्ण के कलयुग अवतार माने जाते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि आखिर कब और कैसे सृष्टि में शुरू हुई थी खाटू श्याम बाबा की पूजा। आइये जानते हैं आज खाटू श्याम जी की संपूर्ण कथा के बारे में ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से।
बर्बरीक का जन्म और आरंभ का जीवन
खाटू श्याम जी का मूल नाम बर्बरीक था। वे पांडु पुत्र भीम और नाग कन्या हिडिम्बा के पौत्र थे। उनके पिता का नाम घटोत्कच था, जो अपनी मायावी शक्तियों के लिए जाने जाते थे। बर्बरीक बचपन से ही बहुत शक्तिशाली और वीर थे। उन्होंने अपनी माता मोरवी से युद्ध कला और भगवान शिव से अनेक अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। भगवान शिव ने उन्हें तीन ऐसे दिव्य बाण प्रदान किए थे, जिनसे वे तीनों लोकों को जीत सकते थे। इन बाणों की विशेषता यह थी कि वे एक ही बाण से किसी भी लक्ष्य को चिह्नित कर सकते थे, दूसरे बाण से उसे नष्ट कर सकते थे, और तीसरे बाण से उसे वापस अपने पास बुला सकते थे। इसी कारण उन्हें 'तीन बाण धारी' भी कहा जाता है।
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महाभारत युद्ध में बर्बरीक का प्रवेश
जब महाभारत का युद्ध निश्चित हुआ, तो बर्बरीक को भी अपनी वीरता दिखाने का अवसर मिला। वे अपनी माता मोरवी से आशीर्वाद लेकर युद्ध में शामिल होने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अपनी माता को वचन दिया था कि वे युद्ध में हमेशा उस पक्ष का साथ देंगे, जो कमजोर होगा या हार रहा होगा। युद्धभूमि की ओर जाते हुए, बर्बरीक एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे भगवान श्रीकृष्ण से मिले, जो ब्राह्मण वेश में थे। श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की वीरता का परीक्षण करने के लिए उनसे पूछा कि वे किस पक्ष से युद्ध लड़ेंगे। बर्बरीक ने अपनी माता को दिए वचन के अनुसार कहा कि वे उस पक्ष का साथ देंगे, जो कमजोर होगा या हार रहा होगा।
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक की शक्तियों को जानते हुए सोचा कि यदि बर्बरीक ने यह वचन निभाया, तो युद्ध का परिणाम बदल सकता है। उन्होंने बर्बरीक से कहा कि यदि वे इतने शक्तिशाली हैं, तो क्या वे एक ही बाण से इस पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को भेद सकते हैं? बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने एक बाण से पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया। एक पत्ता श्रीकृष्ण के पैर के नीचे छिपा हुआ था, जिसे भेदने के लिए बाण उनके पैर के पास रुका। यह देखकर श्रीकृष्ण को बर्बरीक की शक्ति और वचनबद्धता पर पूरा विश्वास हो गया।
शीश का दान और वरदान
श्रीकृष्ण ने तब बर्बरीक को अपने वास्तविक रूप में दर्शन दिए और उन्हें बताया कि युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए किसी महान योद्धा के शीश का दान आवश्यक है। उन्होंने बर्बरीक से उनके शीश का दान मांगा। बर्बरीक, जो अपने वचन के पक्के थे, ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना शीश दान करने की सहमति दे दी। उन्होंने एक अंतिम इच्छा व्यक्त की कि वे महाभारत के पूरे युद्ध को अपनी आंखों से देखना चाहते हैं।
श्रीकृष्ण ने उनकी यह इच्छा पूरी की और उनके शीश को एक ऊँचे स्थान पर स्थापित कर दिया, जहाँ से बर्बरीक ने पूरे युद्ध को देखा। युद्ध समाप्त होने के बाद, पांडवों में यह बहस छिड़ गई कि युद्ध में विजय का श्रेय किसे जाता है। तब श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के शीश से पूछा, जिस पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि उन्होंने युद्धभूमि में केवल श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र को शत्रुओं का संहार करते हुए देखा और द्रौपदी को शक्ति रूप में देखा। यह सुनकर सभी पांडव चकित रह गए।
कलयुग के देव खाटू श्याम
श्रीकृष्ण बर्बरीक के इस महान त्याग और भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने बर्बरीक को वरदान दिया कि कलयुग में वे उनके नाम से पूजे जाएंगे और जो भी भक्त हारे हुए या निराश होंगे, उनका सहारा बनेंगे। श्री कृष्ण ने कहा कि जो भी भक्त उनके नाम का स्मरण करेगा, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। इसके बाद, बर्बरीक का शीश राजस्थान के खाटू गांव में मिला, जहां एक मंदिर का निर्माण किया गया और वे खाटू श्याम जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। आज भी लाखों भक्त खाटू श्याम जी के दर्शन के लिए आते हैं और उन्हें 'हारे का सहारा' मानते हैं। उनकी पूजा विशेष रूप से फाल्गुन माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी और द्वादशी को की जाती है, जिसे 'श्याम बाबा का फाल्गुन मेला' कहा जाता है।
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