(Maa Kushmanda Vrat Katha and Mantra) चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन मां कुष्मांडा की विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है। ऐसी मान्यता है कि मां कूष्मांडा की पूजा करने से व्यक्ति को सुख-समृद्धि की प्राप्ति हो सकती है। साथ ही ऐशवर्य और तेज में भी वृद्धि हो सकती है। अब ऐसे में अगर कोई जातक इस दिन व्रत रख रहा है, तो व्रत कथा जरूर पढ़ें। साथ ही मंत्रों का जाप करना भी उत्तम फलदायी माना जाता है। आइए इस लेख में ज्योतिषाचार्य पंडित अरविंद त्रिपाठी से विस्तार से जानते हैं।
पढ़ें मां कूष्मांडा की व्रत कथा (Maa Kushmanda Vrat Katha 2024)
चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन मां दुर्गा के चौथे स्वरूप मां कूष्मांडा की पूजा-अर्चना करने से सौभाग्य में वृद्धि हो सकती है। ऐसा माना जाता है कि सृष्टि की उत्पत्ति से पहले जब चारों ओर अंधकार था और कोई जीव-जन्तु नहीं था। तब मां दुर्गा ने ब्रह्मांड की रचना की थी। इसी कारण उन्हें कूष्मांडा कहा जाता है। सृष्टि की उत्पत्ति करने के कारण ही इन्हें आदिशक्ति कहा जाता है। मां कूष्मांडा की आठ भुजाएं हैं और यह सिंह पर सवार हैं। मां कूष्मांडा के सात हाथों में चक्र, गदा, धनुष, कमण्डल, अमृत से भरा हुआ कलश, बाण है। इनकी पूजा करने के दौरान मंत्रों का उच्चारण अवश्य करना चाहिए।
मां कूष्मांडा के मंत्रों का करें जाप (Maa Kushmanda Mantras)
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता.नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढा अष्टभुजा कुष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलश चक्र गदा जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिण रत्नकुण्डल मण्डिताम्।
प्रफुल्ल वदनां नारू चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम्।
कोलांगी स्मेरमुखीं क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम् ॥
ॐ देवी कूष्माण्डायै नम:॥
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मां कूष्मांडा बीज मंत्र
ऐं ह्री देव्यै नम:
मां कुष्मांडा देवी स्त्रोत
दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दारिद्रादि विनाशिनीम्।
जयंदा धनदां कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगन्माता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुंदरी त्वंहि दु:ख शोक निवारिणाम्।
परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
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मां कुष्मांडा देवी कवच
हसरै मे शिर: पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रथ, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे वाराही उत्तरे तथा।
पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिग्दिध सर्वत्रैव कूं बीजं सर्वदावतु॥
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