पुरी का जगन्नाथ मंदिर एक ऐसा प्रमुख हिंदू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ यानी कि कृष्ण जी को समर्पित है। इस मंदिर का विशेष धार्मिक महत्व है और इसमें हर साल रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। जगन्नाथ रथ यात्रा का आयोजन हर साल ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ मंदिर से होता है। यह रथ यात्रा हर साल आषाढ़ महीने में आरंभ होती है। इस दौरान भगवान श्री कृष्ण जो भगवान जगन्नाथ का ही स्वरुप हैं वो अपने भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा के साथ 9 दिनों की यात्रा पर निकलते हैं। इस दौरान पूरे ओडिशा में धार्मिक माहौल होता है और लोग यात्रा का आनंद उठाते हैं। जगन्नाथ पूरी की रथ यात्रा के लिए भगवान श्री कृष्ण, बलराम और बहन सुभद्रा के अलग-अलग रथों का निर्माण किया जाता है, इस यात्रा में सबसे आगे बलराम जी का रथ चलता है, बीच में बहन सुभद्रा और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ जी का रथ चलता है। इसमें भगवान् जगन्नाथ अपने भाई बहनों के साथ मौसी के घर गुंडिचा मंदिर जाते हैं।
जगन्नाथ पुरी के मंदिर से जुड़े कुछ ऐसे अनसुने तथ्य हैं जैसे शायद सभी अनजान हैं। ऐसी ही एक तथ्य है कि इस मंदिर में हर बारह साल बाद नवकलेवर की रस्म होती है और इस दौरान मंदिर की मूर्तियां बदली जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस प्रथा को निभाते समय किसी अन्य व्यक्ति की इस पर नज़र न पड़े, इसलिए पूरे पुरी शहर में अंधेरा कर दिया जाता है। आइए ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से जानें क्या है नवकलेवर और जगन्नाथ मंदिर से जुड़े कुछ अन्य रोचक तथ्यों के बारे में विस्तार से।
जगन्नाथ मंदिर में हर 12 साल में क्या होता है?
ऐसी मान्यता है कि जगन्नाथ मंदिर में कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां प्रत्येक बारह साल में बदली जताई हैं। इस प्रक्रिया को नवकलेवर नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ पुनर्जन्म होता है। ऐसा कहा जाता है कि ये मूर्तियां लकड़ी की बनी होती हैं और बारह साल में खराब होने का डर होता है जिसकी वजह से इन्हें बदलने की प्रथा का आरंभ हुआ। भगवान श्रीजगन्नाथ की मूर्ति नीम की लकड़ी से बनाई जाती हैं और हर बारह वर्ष बाद मूर्ति बदलना जरूरी माना जाता है।
इस प्रक्रिया को इतना गुप्त माना जाता है कि इसे मूर्ति बदलने वाला पुजारी भी देख नहीं सकता है और इस प्रथा को निभाते समय पुजारी की आंखों में पट्टी बांध दी जाती है। यही नहीं इस दौरान पूरे पुरी शहर में अंधेरा कर दिया जाता है, जिससे कोई भी अन्य व्यक्ति नवकलेवर की प्रथा को न देख पाए। यही नहीं इस प्रक्रिया को निभाने वाले पुजारियों के हाथों को भी कपड़े से लपेट दिया जाता है, जिसकी वजह से वो मूर्तियों का स्पर्श भी न कर पाएं। बिना देखे और मूर्ति का स्पर्श किए बिना ही जगन्नाथ की मूर्तियों को बदला जाता है और यह प्रक्रिया हर बारह साल में दोहराई जाती है।
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क्या होती है नवकलेवर की प्रथा
नवकलेवर की ऐसी प्राचीन प्रथा है जो सदियों से जगन्नाथ मंदिर में निभाई जाती है। यह प्रथा प्रत्येक 12 साल में मनाई जाती है। जगन्नाथ जी की मूर्तियों को बदलने के लिए और नई मूर्तियों के निर्माण के लिए एक विशेष प्रकार के पेड़ की लकड़ी को चुना जाता है।
इस पेड़ की लकड़ी को दारु कहा जाता है और इसी लकड़ी से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति तैयार की जाती है। मूर्तियों के निर्माण के लिए दारु का चयन एक महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है, जो नवकलेवर अनुष्ठान के दौरान किया जाता है। दारु का चयन कुछ विशेषज्ञ ही करते हैं और वो इस तरह की लकड़ी को चुनते हैं जो मूर्ति निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं।
मूर्ति निर्माण के दौरान विशेष मंत्रों और अनुष्ठानों का पालन किया जाता है, जो मूर्ति को पवित्र और शक्तिशाली बनाने में मदद करते हैं।
12 साल में ही क्यों बदलती हैं जगन्नाथ मंदिर की मूर्ति?
ऐसा माना जाता है कि जगन्नाथ मंदिर की मूर्तियां लकड़ी की बनी होती हैं और इसी वजह से इनके जल्दी ही खराब होने का भय बना रहता है। ऐसा कहा जाता है कि मूर्तियों का निर्माण नीम की लकड़ी से होता है, इसलिए इसके जल्दी खराब होने का डर भी बना रहता है। इसी वजह से इन मूर्तियों को हर बारह साल में बदलने की आवश्यकता होती है।
नवकलेवर एक ऐसी प्रथा है जिसमें पुरानी मूर्तियों की जगह नई मूर्तियां लगाई जाती हैं और उनकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। मूर्तियों की स्थापना के लिए ऐसी लकड़ी को चुना जाता है जो कटी हुई न हों। मूर्तियों के निर्माण के बाद इन्हें एक बार फिर से गर्भगृह में स्थापित किया जाता है।
मूर्तियों के बदलने से लेकर श्री कृष्ण के दिल की मौजूदगी तक, जगन्नाथ पुरी मंदिर से जुड़े कई ऐसे रोचक तथ्य हैं जिनके बारे में आपको भी जरूर जान लेना चाहिए। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से। अपने विचार हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं।
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