फिल्म 'पैडमैन' अपने थीम को लेकर शुरू से ही खबरों में छाया हुआ है। अब ये फिल्म रिलीज हो गई है और अच्छी कमाई कर रही है। इसने भले ही फिल्म पद्मावत को कमाई के मामले में पीछे नहीं छोड़ा है लेकिन फिर भी इसकी ओपनिंग अच्छी रही है। ये वीकेंड पर अच्छी कमाई कर रही है। लोगों को इस फिल्म की थीम पसंद आ रही है।
इस फिल्म की प्रोड्यूसर ट्विंकल खन्ना शुरू से ही इस फिल्म के द्वारा जागरुकता फैला रही हैं। वहीं अब राधिका आप्टे ने भी इस फिल्म के द्वारा लोगों से बदलाव लाने की अपील की है।
पुरुषों में है माहवारी से जुड़ी जानकारी का अभाव
राधिका आप्टे ने कहा है कि पुरुषों में पीरियड से जुड़ी जानकारी को लेकर अभाव हमेशा से ही रहा है। उन्होंने पीरियड् से जुड़ी शर्मिंदगी के लिए महिलाओं को ही जिम्मेदार माना है। वे कहती हैं, महिलाएं ही हैं, जो अपनी बहू, बेटियों में माहवारी को लेकर शर्म बढ़ा रही हैं। उन्होंने 'पैडमैन' को भारतीय सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म बताया है, जिसने फिल्म के जरिए समाज में जागरूकता लाने के नए कीर्तिमान गढ़ दिए हैं।
देश की 82 फीसदी महिलाएं नहीं करतीं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल
राधिका ने आईएएनएस के साथ विशेष बातचीत में कहा, "दुख होता है यह जानकर कि देश की 82 फीसदी महिलाएं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करतीं। सैनिटरी पैड से जीएसटी हटाने से अच्छा है कि इन्हें ग्रामीण और दूरदराज इलाकों की महिलाओं को मुफ्त मुहैया कराया जाए।"
राधिका आप्टे पुणे की है और डॉक्टर्स के परिवार से आती हैं। इनके बारे में माना जाता है कि इनकी फिल्में चलें न चलें, लेकिन इनका किरदार हमेशा छाप छोड़ जाता है। ये बात सही भी लगती है। इस फिल्म में राधिका का एक डायलॉग है, "आदमी दर्द में तो जी सकता है लेकिन शर्म में नहीं जी सकता।" इसी डायलॉग में अपनी बोत को जोड़ते हुए राधिका कहती है, "हमारा समाज माहवारी को लेकर शर्म के चोले में लिपटा हुआ है और यह शर्म महिलाओं से ही तो शुरू होती है। वह एक मां ही होती है, जो अपनी बेटी की पहली माहवारी पर उसे परिवार के अन्य सदस्यों से छिपाकर सैनिटरी पैड देती है। उसे मंदिर में जाने नहीं दिया जाता। रसोई में घुसने की मनाही होती है। समाज के कई तबकों में तो माहवारी के समय महिलाओं के बर्तन और बिस्तर तक अलग कर दिए जाते हैं, उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता है। पैडमैन इसी शर्म के चोले को उतार फेंकने के लिए बनी है।"
क्यों आंखें फेर लेते हैं सैनिटरी पैड के विज्ञापन से
आपने गौर किया होगा कि अक्सर टीवी पर जब भी सैनिटरी पैड के विज्ञापन आते हैं तो हम आंखें फेर लेते हैं ये चैनल बदल देते हैं। राधिका आप्टे इसी चीज पर सवाल करती हैं, "ऐसा क्यों होता है कि जब टेलीविजन पर अचानक से सैनिटरी पैड का विज्ञापन आता है, तो हम पानी पीने या बाथरूम के बहाने कमरे से खिसक जाते हैं या बगल में झांकने लगते हैं? बदलाव कहां से आएगा? यह जब घर से शुरू होगा, तभी समाज बदलेगा।" वह नई पीढ़ी समझदार बताती हैं और कई मायनों में उन्हें नई पीढ़ी जागरूक लगती है। वह इस तरह की चीजों को समझ रही है, लेकिन सभी को इसे लेकर संवेदनशील होना पड़ेगा।
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