हर साल ओडिशा के पुरी में जून-जुलाई के महीने में जगन्नाथ रथ यात्रा निकलती है। इस साल भी तैयारियां जोरों पर हैं और द्रिक पंचांग के अनुसार, इस साल रथ यात्रा 27 जून, शुक्रवार को पुरी में होगी। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, रथ यात्रा आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकाली जाती है। रथ यात्रा की शुरुआत जगन्नाथ मंदिर से होती है, जहां पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति स्थापित है। जगन्नाथ रथ यात्रा के दौरान, तीनों देवता भव्य सजे हुए रथों पर सवार होकर अपनी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर के लिए निकलते हैं। इस रथ को भक्त पुरी की मुख्य सड़क पर रस्सियों से खींचते हैं। लेकिन आपको बता दें कि जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत एक खास और पवित्र परंपरा से होती है, जिसे छेरा पहरा कहा जाता है।
आज हम आपको इस आर्टिकल में बताने वाले हैं कि छेरा पहरा क्या होता है, इसके बिना क्यों अधूरी मानी जाती है रथ यात्रा और इसका महत्व क्या है?
क्या होती है छेरा पहरा?
यह अनोखी रस्म है, जिसमें पुरी के गजपति महाराजा एक सेवक की तरह कपड़े पहनकर सोने की झाड़ू से रथ के रास्ते को चंदन, जल और फूलों से साफ करते हैं।गजपति महाराजा पारंपरिक रूप से उस क्षेत्र के राजा माने जाते हैं। इस परंपरा का मतलब है कि भगवान के सामने राजा और रंक सभी समान हैं। छेरा पहरा की रस्म न केवल रथ यात्रा की शुरुआत में होती, बल्कि जब रथ लौटता है, तब भी इसे दोहराया जाता है।
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छेरा पहरा कब किया जाता है?
छेरा पहरा की रस्म जगन्नाथ रथ यात्रा के पहले दिन की जाती है। यह दिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को होता है। फिर, जब रथ यात्रा 9 दिन बाद, गुंडिचा मंदिर से लौटकर जगन्नाथ मंदिर की ओर जाती है, तो फिर से इस रस्म को दोहराया जाता है। इसे बहुदा यात्रा कहते हैं।
छेरा पहरा पहली बार रथ यात्रा के पहले दिन किया जाता है। यह दिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को आता है। इस अनुष्ठान को भगवान की यात्रा की शुभ शुरुआत और आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।
इन दोनों अवसरों पर पुरी के गजपति महाराजा भगवान के सेवक की तरह रथों के आगे झाड़ू लगाते हैं और चंदन के पानी को छिड़कते हैं।
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छेरा पहरा की पौराणिक कथा
एक समय की बात है, जब ओडिशा में सूर्यवंश के वीर और धर्मपरायण राजा गजपति पुरुषोत्तम देव शासन किया करते थे। वह केवल राजा नहीं थे, बल्कि वह खुद को भगवान जगन्नाथ के सेवक मानते थे। वह हमेशा कहते थे कि मैं राजा नहीं हूं, बस प्रभु का प्रतिनिधि हूं। मैं उन्हीं की कृपा से इस धरती पर राज करता हूं। उसी समय दक्षिण भारत में कांची नाम का एक शक्तिशाली राज्य था। वहां की राजकुमारी पद्मावती अपनी सुंदरता और गुणों के लिए जानी जाती थी। राजा पुरुषोत्तम ने जब पद्मावती के बारे में सुना, तो उनका मन उससे शादी करने का हुआ।
राजा ने कांची नरेश को विवाह का प्रस्ताव भेजा। कांची नरेश काफी प्रभावित हुए लेकिन उनके मंत्री ने आपत्ति जताते हुए कहा कि कैसे हम अपनी बेटी एक ऐसे राजा को दे सकते हैं जो साल में एक बार सफाईकर्मी की तरह झाड़ू लगाता है। यह सुनकर कांची नरेश ने विवाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। यह बात पुरुषोत्तम देव को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने क्रोधित होकर कहा कि इस अपमान का बदला वह युद्ध में जीतकर लेंगे। विवाह तो पद्मावती का होगा लेकिन एक सफाईकर्मी से होगा।
पुरुषोत्तम देव कांची नरेश से पहले युद्ध में हार गए, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने भगवान जगन्नाथ की पूजा की और 1 साल बाद दोबारा युद्ध के लिए निकले। रास्ते में उन्हें एक दूधवाली मणिका मिली। उसने बताया कि कुछ घुड़सवार उसके पास आए थे और उन्होंने दही खाया था और एक रत्न से जड़ी हुई अंगूठी देकर कहा कि यह अंगूठी राजा को दे देना। वे हमारे लिए दही का दाम चुका देंगे। जब पुरुषोत्तम देव ने अंगूठी देखी तो वह हैरान रह गए। दरअसल अंगूठी जगन्नाथ भगवान की थी। कुछ देर बाद पुरी मंदिर से संदेश आया कि भगवान की अंगूठी गायब है। राजा समझ गए कि इस युद्ध में जगन्नाथ और बलभद्र उनके साथ हैं।
फिर, राजा ने कांची नरेश पर चढ़ाई कर दी और विजय प्राप्त की। उन्होंने राजकुमारी पद्मावती को बंदी बना लिया और अपने राज्य ले आए। पुरी लौटकर उन्होंने मंत्री से कहा कि इसका विवाह किसी सफाईकर्मी से करा दिया जाए। यही उनके अपमान का जवाब होगा। लेकिन मंत्री बहुत समझदार था और वह राजकुमारी को लेकर अपने घर चला गया। समय बीता और फिर जगन्नाथ रथ यात्रा का समय आया। जब पुरुषोत्तम देव छेरा पहरा कर रहे थे तभी मंत्री राजकुमारी को लेकर आया और उसने बोला कि महाराज आपने कहा था कि मैं इसका विवाह किसी सफाईकर्मी से कर दूं। मैंने बहुत खोजा लेकिन कोई काबिल नहीं मिला, इसलिए आपसे निवेदन है कि आप विवाह कर लीजिए। राजा हैरान रह गए। उन्होंने अपने अहंकार खत्म कर दिया और भगवान को समर्पित करते हुए पद्मावती से शादी कर ली।
इसके बाद, हर साल पुरी के गजपति महाराजा रथ यात्रा की शुरुआत से पहले रथों की सफाई करते हैं। छेरा पहरा परंपरा की सीख है कि सम्मान सेवा में हैं, अहंकार में नहीं।
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