इरा सिंघल जिनके जीवन की यात्रा एक चुनौती के रूप में शुरू हुई। ऐसा इसलिए क्योंकि पहले ही प्रयास में सबसे कठिन परीक्षा पास करने के बावजूद उन्हें नौकरी के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
इरा सिंघल बीस साल की थीं, जब उन्होंने अपने पहले ही प्रयास में यूपीएससी (UPSC) परीक्षा पास कर ली। हालांकि, आईआरएस पद (IRS) जैसी अच्छी रैंक हासिल करने के बावजूद उन्हें पद नहीं दिया गया।
सिंघल का मानना था कि वह उस पद के लिए आवश्यक होने वाली सभी 'क्षमताओं' और एबिलिटी के लिए योग्य थी, फिर भी उन्हें वह पद नहीं मिला। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शायद लोगों का ध्यान सिंघल के विकलांग होने पर था, इसका मतलब यह था कि वह उनकी शारीरिक डिसेबिलिटी को पसंद नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें वह पद नहीं मिला।
बता दें कि इरा सिंघल को स्कोलियोसिस है, जो रीढ़ से संबंधित डिसेबिलिटी है, जो उनकी बाजू से जुड़ा हुआ है। सिंघल दो बार परीक्षा उत्तीर्ण कर चुकी है, लेकिन उन्हें हमेशा निराशा का ही सामना करना पड़ा।
साल 2014 में, उन्होंने चौथी बार यूपीएससी की परीक्षा पास की और वह यूपीएससी परीक्षा में रैंक वन हासिल करने वाली पहली विकलांग महिला बनी थीं। (IAS सोनल गोयल ने दिया महिलाओं को ये संदेश)
सिंघल को छोटी उम्र से ही यकीन था कि वह समाज को बेहतर बनाने में अपना बड़ा योगदान देंगी। वैसे तो वह बड़े होकर एक डॉक्टर बनने की ख्वाहिश रखती थी।
हालांकि, उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिर एमबीए किया। इरा "जब वह कॉरपोरेट सेक्टर में काम कर रही थीं, तब उन्हें एहसास हुआ कि वह जो भी काम कर रही हैं, उससे वास्तव में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।"
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आगे बढ़ने की चाहत ने ही इरा को भारतीय सिविल सेवा (Indian Civil Services) में जाने का मौका मिला। इरा का कहना है कि अगर सरकार अपना काम अच्छी तरह से करती है, तो अलग से सामाजिक क्षेत्र की आवश्यकता नहीं होगी।
सिंघल 27 साल की थी जब वह पहली बार यूपीएससी की परीक्षा में बैठीं थी और पहले प्रयास में यूपीएससी परीक्षा पास कर ली। जिसके बाद उन्हें आईआरएस (भारतीय राजस्व सेवा) के पद पर काम करने का मौका मिला।
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इरा का मानना है कि विकलांग लोगों को विकलांगता कोटा के तहत परीक्षा देने के लिए मजबूर किया जाता है, परीक्षा में दो तरह की चीजें देखी जाती हैं, जिसमें एक तो आपकी विकलांगता क्या है और अगर आप यह पद चाहती हैं तो आप इसके लिए कितनी योग्य हैं।
लेकिन सच यह है कि दोनों में कोई समानता नहीं है। केवल विकलांग लोगों को ही आईएएस के रूप में काम करने की अनुमति थी और इस भूमिका के लिए आवश्यक सभी योग्यताओं को पूरा करने के बावजूद, कोई भी उन्हें इस पद पर रखने के लिए तैयार नहीं था। इसलिए उन्होंने अपने हक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया।
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इरा को हर बार नौकरी देने से केवल इसलिए अस्वीकार कर दिया जाता था, क्योंकि लोगों को उनका विकलांग होना पसंद नहीं आ रहा था। अपने हक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्हें लगभग चार साल लग गए थे।
इस लड़ाई के दौरान भी इरा दो बार फिर से यूपीएससी की परीक्षा पास कर चुकी थी, लेकिन फिर भी ऐसा लग रहा था कि उनका भाग्य उनका साथ नहीं दे रहा है।
आखिर साल 2014 में, अपने चौथे प्रयास में, उन्होंने परीक्षा में टॉप किया, और आईएएस परीक्षा में टॉप करने वाली पहली दिव्यांग महिला बनीं।
आखिरकार इरा अपने हक की लड़ाई में सफल हो पाई और अब वह अरुणाचल प्रदेश में शिक्षा के विशेष सचिव के रूप में काम करती हैं। इरा 40 साल की हैं और लोगों को अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करती हैं। (नव्या नवेली नंदा ने जब जिंदगी के खास पन्नों की बात की)
इरा का कहना है कि भले ही संगठन, कॉर्पोरेट और कार्यालय अधिक से अधिक विकलांगता अनुकूल बन गए हैं। लेकिन लोगों की सोच आज भी ऐसी ही है। कई स्कूल ऐसे हैं, जो लगातार आपसे कहते हैं कि वे आपको अपने स्कूल में नहीं ले सकते।
ऐसे ही कई संस्थान हैं, जो आपके काम को देखे बिना ही, नौकरी देने से मना कर देते हैं। इसलिए अक्सर विकलांग लोगों के मन में भी इस तरह के ख्याल देखे जाते हैं कि वह किसी काम को करने में आम लोगों की तरह सक्षम नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है, उन्हें इस तरह के ख्यालों से दूर रहना चाहिए।
इरा के जीवन में उनके परिवार ने सबसे अहम योगदान दिया है। माता-पिता के समर्थन के बिना, जीवन में कोई कुछ कुछ नहीं कर सकता। वह आपकी आपकी रीढ़ की तरह काम करते हैं, वह आपकी बुनियादी ताकत है, आप जो भी करते हैं, उसका साहस परिवार से ही आता है।
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