देवशयनी से देवउठनी एकादशी तक, आखिर क्यों चतुर्मास में भगवान विष्णु करते हैं विश्राम? जानिए पालनहार के शयन की अनोखी कहानी

चातुर्मास में कोई भी शुभ और मांगलिक कार्य जैसे-शादी, मुंडन और गृह प्रवेश आदि नहीं किया जाता है। कहा जाता है कि इस दौरान यानी देवशयनी एकादशी से लेकर देवउठनी एकादशी तक भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं। इस अवधि में शुभ कार्य वर्जित होते हैं, जो आध्यात्मिक साधना के लिए उत्तम मानी जाती है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है। तो चलिए जानते हैं कि भगवान विष्णु आखिर क्यों चतुर्मास में विश्राम के लिए चले जाते हैं।
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भारतीय सनातन धर्म में चातुर्मास का विशेष महत्व होता है, जो देवशयनी एकादशी से शुरू होकर देवउठनी एकादशी तक चलता है। यह चार महीने की अवधि पूजा-पाठ, व्रत और साधना के लिए अत्यंत शुभ मानी जाती है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि इन चार महीनों के दौरान भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में चले जाते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसके पीछे एक गहरी पौराणिक कथा छिपी है, जो सृष्टि के पालनहार के इस विश्राम के रहस्य को उजागर करती है। चतुर्मास सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रकृति के चक्र, आध्यात्मिक शुद्धि और देवताओं के संतुलन को भी दर्शाता है। ऐसे में, कई लोगों के मन में यह जिज्ञासा रहती है कि आखिर क्यों सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु को इतने लंबे समय तक विश्राम करने की आवश्यकता पड़ती है? इस दौरान शुभ कार्यों पर रोक क्यों लग जाती है? तो चलिए हम ज्योतिषाचार्य अरविंद त्रिपाठी से इन सारे सवालों के जवाब जान लेते हैं। आइए, भगवान विष्णु के इस योगनिद्रा में जाने की अनोखी और रोचक कहानी को विस्तार से समझते हैं, जो हमें चातुर्मास के वास्तविक महत्व और इसके पीछे की दिव्य योजना से अवगत करा सकती है।

चातुर्मास में भगवान विष्णु क्यों करते हैं विश्राम?

भारतीय ज्योतिष और पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, चातुर्मास आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी से शुरू होकर कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी तक चलता है। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के योगनिद्रा में चले जाने की मान्यता है, जिसके कारण इस अवधि में विवाह, गृह प्रवेश जैसे सभी शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं। लेकिन, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु जी को विश्राम की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ती है, इसके पीछे एक रोचक पौराणिक कथा है।

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भगवान विष्णु के शयनकक्ष में जानें के पीछे क्या है पौराणिक कथा?

यह कहानी राजा बलि से जुड़ी है, जो एक अत्यंत पराक्रमी और दानी असुर राजा थे। वे अपने दानवीर स्वभाव के लिए विख्यात थे, लेकिन उनमें थोड़ा अहंकार भी आ गया था। राजा बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था और इंद्र का सिंहासन भी छीन लिया था, जिससे देवतागण चिंतित हो गए। देवताओं की विनती पर, भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। वामन अवतार में भगवान विष्णु राजा बलि के पास गए और उनसे भिक्षा में तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने इस छोटे ब्राह्मण बालक की मांग को सहजता से स्वीकार कर लिया। यह जानते हुए भी कि उनके गुरु शुक्राचार्य ने उन्हें मना किया था।

जैसे ही राजा बलि ने तीन पग भूमि देने का संकल्प लिया, वामन भगवान ने अपना विराट रूप धारण कर लिया। पहले पग में उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी को नाप लिया। दूसरे पग में उन्होंने आकाश और सभी लोकों को नाप लिया। अब तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं बचा था। तब राजा बलि ने, अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए, अपना सिर आगे कर दिया और कहा, "हे प्रभु! तीसरा पग मेरे सिर पर रखें।" भगवान विष्णु ने तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखा और उन्हें पाताल लोक भेज दिया। राजा बलि की भक्ति और दानवीरता से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। राजा बलि ने वरदान मांगा कि भगवान विष्णु उनके साथ पाताल लोक में निवास करें और उनके द्वारपाल बनें। भगवान विष्णु ने राजा बलि के इस वरदान को स्वीकार कर लिया और उनके साथ पाताल लोक में जाकर चार महीनों के लिए योगनिद्रा में लीन हो गए। इसी अवधि को चातुर्मास के नाम से जाना जाता है।

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चातुर्मास का महत्व और इस दौरान क्या होता है?

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धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक, यह माना जाता है कि इन चार महीनों में भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और सृष्टि का कार्यभार भगवान शिव संभालते हैं। इसीलिए इस दौरान शिव पूजा का विशेष महत्व होता है। चूंकि भगवान विष्णु योगनिद्रा में होते हैं, इसलिए इस अवधि में विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश, नए व्यापार की शुरुआत जैसे सभी मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं। मान्यता है कि इन कार्यों के लिए भगवान विष्णु का आशीर्वाद नहीं मिल पाता है। यह समय आध्यात्मिक उन्नति, तपस्या, व्रत और ध्यान के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है। इस दौरान भक्तजन भगवान की भक्ति में लीन होते हैं, सत्संग करते हैं और पुण्य कमाते हैं। कई लोग इस दौरान एक समय भोजन करते हैं, मौन व्रत रखते हैं या तीर्थ यात्रा पर जाते हैं।

वैज्ञानिक रूप से भी यह अवधि मानसून का होता है, जब वातावरण में नमी और सूक्ष्म जीवों की वृद्धि बढ़ जाती है। इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। शायद यही कारण है कि प्राचीन ऋषियों ने इस समय को बाहरी गतिविधियों के बजाय आंतरिक शुद्धि और आत्म-चिंतन के लिए उपयुक्त माना जाता है।

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Image credit- Freepik


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