
भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जो न सिर्फ रहस्यमयी हैं बल्कि इनसे जुड़ी परम्पराएं भी बहुत अनूठी हैं। ठीक ऐसा ही एक मंदिर है छत्तीसगढ़ में जहां मामा और भांजा साथ में न तो प्रवेश कर सकते हैं और न ही दर्शन कर सकते हैं। इस मंदिर को लेकर ऐसी मान्यता है कि अगर गलती से भी मामा-भांजा साथ में इस मंदिर में प्रवेश कर जाएं तो दोनों के जीवन में कुछ न कुछ अशुभ घटित होता ही है। अब यह कितना सच या फिर कितनी किंवदंतियां हैं इस बारे में तो स्थानीय लोग ही जानते हैं। तो चलिए क्या है कौन सा है ये मंदिर, क्या कथा है इसकी और आखिर क्यों इस मंदिर में मामा-भांजा सात में नहीं जा सकते हैं, इन सभी के बारे में जानते हैं वृंदावन के ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से।
यह ऐतिहासिक मंदिर छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के बारसूर नामक स्थान पर स्थित है। बारसूर, जिसे कभी छिंदक नागवंशियों की राजधानी माना जाता था, वहां कई प्राचीन मंदिर मौजूद हैं जिनमें से मामा-भांजा मंदिर सबसे अनोखा है। इस मंदिर के नाम और अजीबोगरीब नियम के पीछे एक प्रसिद्ध स्थानीय कहानी है।

कथा के अनुसार, इस मंदिर के निर्माण का कार्य दो कारीगरों मामा और भांजे को सौंपा गया था। ये दोनों कारीगर कला और शिल्प में बहुत निपुण थे लेकिन उनमें श्रेष्ठता की भावना को लेकर एक हल्का-सा अहंकार था। दोनों ने मिलकर संकल्प लिया था कि वे एक ऐसा अद्भुत और भव्य मंदिर बनाएंगे जिसे देखकर पूरी दुनिया दंग रह जाएगी।
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मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ और दोनों ने अपनी पूरी कला और क्षमता लगा दी। काम पूरा होने के करीब था तभी दोनों के बीच यह बात शुरू हो गई कि मंदिर का शिल्पकार कौन बड़ा कहलाएगा मामा या भांजा। इसी दौरान, दोनों ने एक शर्त लगाई कि जो भी मंदिर का काम पहले पूरा करेगा उसी का नाम इतिहास में महान शिल्पी के रूप में दर्ज होगा।
भांजे ने अपनी युवा ऊर्जा और चतुराई से मामा से पहले मंदिर का काम पूरा कर लिया। जब मामा ने देखा कि भांजे ने उनसे पहले मंदिर बना दिया है और वह शिल्पकार के रूप में श्रेष्ठ कहलाएगा तो मामा को बहुत क्रोध आया। क्रोध और ईर्ष्या में आकर मामा ने भांजे का सिर काट दिया। बाद में जब मामा का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें अपने किए पर बहुत पछतावा हुआ।

इसी दुख और प्रायश्चित के प्रतीक के रूप में यह परंपरा बन गई कि जिस मंदिर के लिए मामा ने अपने ही भांजे को मार डाला,वहां मामा और भांजा एक साथ प्रवेश नहीं करेंगे और न ही एक-दूसरे के साथ भगवान के दर्शन करेंगे। इसके अलावा, मंदिर का वास्तविक महत्व इसकी अद्वितीय स्थापत्य कला में निहित है। यह मंदिर छिंदक नागवंशी शैली की वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है।
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मंदिर की दीवारों पर खजुराहो शैली की नक्काशी देखने को मिलती है। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और इसकी संरचना में मुख्य रूप से लाल बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया है। मंदिर के स्तंभों और दीवारों पर देवी-देवताओं, युद्ध के दृश्यों, नृत्य करती अप्सराओं और पशु-पक्षियों की बारीक और सजीव नक्काशी है जो उस काल के कारीगरों की अद्भुत कला को दर्शाती है।
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