
महाभारत की कथा में माता कुंती का व्यक्तित्व अत्यंत धैर्यवान और संघर्षपूर्ण रहा है। वह केवल पांडवों की माता ही नहीं बल्कि धर्म और सहनशक्ति की प्रतिमूर्ति भी थीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि कुंती का जन्म साधारण नहीं था बल्कि वह एक दिव्य शक्ति का अंश थीं। उनका पूरा जीवन त्याग और तपस्या की एक मिसाल रहा जिसने कुरुवंश की नींव को संभाले रखा। उनके जन्म की दिव्यता से लेकर उनके जीवन के अंतिम समय तक की यात्रा हमें यह सिखाती है कि संसार में मोह का त्याग कर मोक्ष की प्राप्ति कैसे की जाती है। आइये जानते हैं वृंदावन के ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से कि किसका अवतार थीं कुंती और कैसे हुई थी कुंती की मृत्यु?
महाभारत के अनुसार, माता कुंती को 'सिद्धि' का अवतार माना जाता है। सिद्धि, जो कि सफलता और निपुणता की देवी हैं, उन्हीं के अंश से कुंती का प्राकट्य हुआ था। वहीं कुछ ग्रंथों में उन्हें 'मति' यानी बुद्धि का अवतार भी बताया गया है।

उनके पूर्व जन्म और दैवीय अंश के कारण ही उनमें दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए मंत्रों को सिद्ध करने की अद्भुत क्षमता थी। इसी मंत्र शक्ति के बल पर उन्होंने विभिन्न देवताओं का आह्वान कर तेजस्वी पुत्रों अर्थात पांडवों को प्राप्त किया था।
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महाभारत के भीषण युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद जब युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ तब कुंती कई वर्षों तक राजभवन में रहीं। उन्होंने धृतराष्ट्र-गांधारी की सेवा की। साथ ही, अपने पुत्रों और पुत्र वधुओं के साथ पारिवारिक क्षण बिताए।
जैसे-जैसे समय बीता उनके मन में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न होने लगा। कुंती जानती थीं कि जीवन का अंतिम लक्ष्य राजसुख नहीं बल्कि ईश्वर की प्राप्ति है। जब धृतराष्ट्र और गांधारी ने वानप्रस्थ का निर्णय लिया तो कुंती भी उनके साथ वन चली गई थीं।
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माता कुंती की मृत्यु एक हृदयविदारक लेकिन आध्यात्मिक घटना थी। वन में रहते हुए धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती कठिन तपस्या कर रहे थे। एक दिन वन में अचानक भीषण आग लग गई। तपस्या में लीन होने के कारण वे उसी आग में जल गए।

यूं तो ऐसी मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है, लेकिन तपस्या के दौरान अग्नि में जल जाने के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती को मोक्ष की प्राप्ति हुई। ऐसा भी कहते हैं कि श्री कृष्ण ने माता कुंती को अपने धाम में स्थान दिया था।
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