जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व सिर्फ एक धार्मिक त्योहार तक सीमित नहीं है बल्कि यह आस्था, भक्ति और सांस्कृतिक एकता का एक बड़ा प्रतीक है। लाखों भक्त हर साल इस यात्रा में शामिल होने के लिए पुरी पहुंचते हैं क्योंकि यह माना जाता है कि भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के रथों को खींचने या उनके दर्शन मात्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है और पूर्व जन्मों के पाप धुल जाते हैं। यह यात्रा भगवान के अपने भक्तों से मिलने का एक वार्षिक अवसर है जहां वे मंदिर की चारदीवारी से बाहर आकर सभी को आशीर्वाद देते हैं। इस साल जगन्नाथ रथ यात्रा 27 जून से शुरू हो रही है, ऐसे में आइये जानते हैं ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से कि कैसे शुरू हुई थी जगन्नाथ रथ यात्रा और क्या है इसके पीछे की व्रत कथा।
जगन्नाथ रथ यात्रा की पहली व्रत कथा
भगवान जगन्नाथ जो भगवान कृष्ण का ही रूप हैं, अपनी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र के साथ साल में एक बार अपनी मौसी गुंडिचा देवी के घर जाते हैं। पुरी में गुंडिचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर माना जाता है। यह यात्रा भगवान के अपने भक्तों से मिलने और उन्हें दर्शन देने के उद्देश्य से निकाली जाती है, क्योंकि मंदिर में रहकर हर भक्त के लिए भगवान के दर्शन करना संभव नहीं हो पाता।
रथ यात्रा के दौरान भगवान, अपनी बहन और भाई के साथ रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण करते हैं जिससे सभी भक्त उनके दर्शन कर सकें और उनका आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। इस यात्रा में भाग लेना और रथों को खींचना बहुत पुण्य का काम माना जाता है जिससे जन्म-जन्म के पापों से मुक्ति मिलती है।
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जगन्नाथ रथ यात्रा की दूसरी व्रत कथा
एक और महत्वपूर्ण कथा भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अधूरी मूर्तियों से जुड़ी है। कहा जाता है कि एक बार भगवान कृष्ण नींद में राधा रानी का नाम पुकार रहे थे जिसे सुनकर उनकी पत्नियां हैरान थीं। उन्होंने माता रोहिणी से इसके बारे में पूछा। रोहिणी जी ने उन्हें राधा-कृष्ण की प्रेम कथा सुनानी शुरू की और देवी सुभद्रा को द्वार पर पहरा देने के लिए कहा ताकि कोई अंदर न आ सके। कथा सुनते-सुनते सुभद्रा, बलराम और स्वयं श्रीकृष्ण इतने भाव-विभोर हो गए कि उनके हाथ-पैर सिकुड़ गए और आंखें बड़ी हो गईं।
ठीक इसी समय देवर्षि नारद वहां पहुंच गए और तीनों की यह अद्भुत अवस्था देखकर चकित रह गए। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि वे इसी महाभाव में लीन मूर्ति रूप में पृथ्वी पर हमेशा विराजमान रहें ताकि आम लोग उनके दर्शन कर सकें। भगवान ने नारद जी का यह वरदान स्वीकार किया और इसी कारण उनकी मूर्तियां आज भी अधूरी दिखती हैं। बाद में, जब राजा इंद्रद्युम्न ने मूर्तियों का निर्माण कराया तो कारीगर जो स्वयं विश्वकर्मा थे उन्होंने मूर्तियां पूरी करने से पहले ही काम छोड़ दिया क्योंकि रानी गुंडिचा ने उन्हें मूर्तियां बनाते हुए देख लिया था। तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी अधूरे रूप में ही स्थापित होना चाहते हैं। तभी से ये अधूरी मूर्तियां पुरी में पूजी जाती हैं।
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