हिंदू धर्म में पूजा के दौरान कुछ रस्म-रिवाज पुरातन समय से चली आ रहा है, जिसे हम आज भी जस-का-तस मनाते हुए चले आ रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि इन सभी परंपराओं के पीछे कोई न कोई धार्मिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण होता है। एक ऐसा ही नियम है, जो हम सभी भगवान की पूजा करने के बाद करते हैं और वह है आरती। आरती पाठ पूरा होने के बाद घर के सदस्य या मंदिर परिसर में पंडित जी द्वारा आरती की थाल भक्त को दिखाई दी जाती है, जिसके बाद वह आरती को माथे लगाते हुए उसमें कुछ सिक्के या नोट डालते हैं।
अक्सर हम सभीआरती के बाद बिना सोचे-समझे करते हैं, इस परंपरा को निभाते हैं। क्योंकि यह हमारी परंपरा का हिस्सा है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इसके पीछे की असली वजह क्या है? क्या यह सिर्फ दान-दक्षिणा का एक तरीका है, या इसका कोई गहरा धार्मिक अर्थ है। चलिए पंडित उदित नारायण त्रिपाठी से जानते हैं कि पैसा थाली में डालने के पीछे का क्या कारण है।
दान को लेकर श्रीमद्भागवत गीता में क्या लिखा है?
हिंदू धर्म में दान करने का विशेष महत्व है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार दान करता है और दान हमेशा सद्पात्र व्यक्ति को देना चाहिए। श्रीमद्भागवत गीता में श्लोक है "दातव्यमितियद्दानंदीयतेऽनुपकारिणे। देशे काले च पात्रे चतद्दानंसात्त्विकंस्मृतम्।।" धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो मंदिर के पुजारी भी दान के सच्चे पात्र होते हैं। उनसे हमें किसी प्रकार के उपकारकी अपेक्षा नहीं होती। वे अपना जीवन भगवान की भक्ति में समर्पित करते हैं और दूसरों की भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं। इसलिए आरती की थाली में पैसे डालना पुजारी को दिया गया एक सात्विक दान माना जाता है क्योंकि यह बिना किसी अपेक्षा के योग्य पात्र को दिया गया सहयोग है।
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आरती की थाली में क्यों डाले जाते हैं पैसे?
आरती के बाद थाली में पैसे डालने की प्रथा एक सात्विक दान का प्रतीक है। इसका अर्थ है कि यह दान बिना किसी अपेक्षा के, योग्य व्यक्ति और उचित स्थान पर दिया जाता है। मंदिर के पुजारी ऐसे ही योग्य पात्र होते हैं, क्योंकि वे अपना जीवन ईश्वर की भक्ति में लीन रहते हैं और समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार, आरती की थाली में दिए गए पैसे उनके प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का एक रूप हैं।
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