
उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जिले में गंगा के पावन तट पर स्थित विंध्याचल धाम न केवल एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है बल्कि यह करोड़ों भक्तों की आस्था का अटूट केंद्र भी है। विंध्याचल पर्वत श्रृंखला पर विराजमान मां विंध्यवासिनी के बारे में मान्यता है कि वे आदि शक्ति का पूर्ण स्वरूप हैं, जहां साक्षात निवास करती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब कंस ने देवकी की आठवीं संतान समझकर कन्या को पत्थर पर पटका तब वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गईं और विंध्याचल पर्वत पर आकर प्रतिष्ठित हुईं। इस स्थान को लेकर कई रहस्य और कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से एक सबसे भावुक कर देने वाला रहस्य मां की प्रतिमा पर मौजूद चोट के निशान हैं जो आज भी भक्तों के मन में श्रद्धा और कौतूहल पैदा करते हैं। आइये जानते हैं इस बारे में वृंदावन के ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से।
विंध्याचल मंदिर के गर्भगृह में मां विंध्यवासिनी की जो दिव्य प्रतिमा है वह स्वयंभू मानी जाती है। भक्त जब बहुत करीब से दर्शन करते हैं तो उन्हें मां के श्री मुख और विग्रह पर कुछ हल्के चोट या खरोंच के निशान दिखाई देते हैं। इन निशानों के पीछे प्राचीन पौराणिक कथा जुड़ी हुई है।

माना जाता है कि जब अत्याचारी कंस ने उस दिव्य कन्या को मारने का प्रयास किया था और उन्हें शिला पर पटका था तो उस प्रहार के भौतिक निशान देवी ने अपने विग्रह पर स्वीकार कर लिए। यह इस बात का प्रतीक माना जाता है कि देवी ने कष्ट को सहा ताकि संसार का कल्याण हो सके और कंस के विनाश की घोषणा की जा सके।
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धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, विंध्याचल पर्वत को अत्यंत जागृत स्थान माना गया है। यह दुनिया का इकलौता ऐसा स्थान है जहां 'त्रिकोण यंत्र' की पूजा होती है। यहां मां विंध्यवासिनी (मां लक्ष्मी) पर्वत के ऊपर मां अष्टभुजा (महासरस्वती) और मां काली (महाकाली) के रूप में विराजमान हैं।
रहस्य यह भी है कि मां विंध्यवासिनी यहां से कभी कहीं नहीं जातीं। वे अनंत काल तक यहीं निवास करती हैं। इसी कारण इस क्षेत्र को 'सिद्धपीठ' कहा जाता है जहां की गई साधना कभी विफल नहीं होती।
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मंदिर का रहस्य केवल निशानों तक सीमित नहीं है बल्कि यहां की ऊर्जा भी अद्भुत है। कहा जाता है कि विंध्यवासिनी मंदिर में देवी की प्रतिमा के दर्शन मात्र से भक्तों के हृदय का भारीपन दूर हो जाता है।

यहां दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु बताते हैं कि मां के चेहरे के भाव दिन के अलग-अलग समय पर बदलते रहते हैं जैसे कभी वे अत्यंत सौम्य लगती हैं तो कभी उनमें एक दिव्य तेज और गंभीरता दिखाई देती है। रात के समय होने वाली आरती और श्रृंगार के दौरान ये निशान और भी स्पष्टता से महसूस किए जा सकते हैं जो भक्तों को द्वापर युग की उस घटना की याद दिलाते हैं।
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