हरियाली तीज का व्रत मुख्य रूप से अखंड सौभाग्य की कामना के लिए रखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया था। इसलिए, जो महिलाएं इस दिन विधि-विधान से व्रत रखती हैं, उन्हें भगवान शिव और माता पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उनका वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
इस दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठकर स्नान करती हैं और नए, सुंदर वस्त्र धारण करती हैं. हरे रंग का इस दिन विशेष महत्व होता है, क्योंकि यह हरियाली और ताजगी का प्रतीक है. महिलाएं हाथों में मेहंदी लगाती हैं, सोलह श्रृंगार करती हैं और पूरे दिन निर्जला व्रत रखती हैं।
पूजा के लिए घर या मंदिर में भगवान शिव, माता पार्वती और गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की जाती है। महिलाएं व्रत कथा सुनती हैं, भजन-कीर्तन करती हैं और शिव-पार्वती को समर्पित गीत गाती हैं। पूजा में बेलपत्र, शमी पत्र, धतूरा, आक के फूल, फल और मिठाइयाँ अर्पित की जाती हैं. माता पार्वती को विशेष रूप से सुहाग की सामग्री जैसे चूड़ियाँ, सिंदूर, बिंदी, मेहंदी आदि अर्पित की जाती हैं। अब ऐसे में अगर आप भी मनचाहे वर की कामना करती हैं तो इस दिन पार्वती वल्लभ निलंकठाष्टकम स्तोत्र का पाठ करने से उत्तम परिणाम मिल सकते हैं। आइए इस लेख में ज्योतिषाचार्य पंडित अरविंद त्रिपाठी से विस्तार से जानते हैं।
हरियाली तीज के दिन करें पार्वती वल्लभ निलंकठाष्टकम स्तोत्र का पाठ
नमो भूतनाथं नमो देवदेवं
नमः कालकालं नमो दिव्यतेजः । (दिव्यतेजम्)
नमः कामभस्मं नमश्शान्तशीलं
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ १॥
सदा तीर्थसिद्धं सदा भक्तरक्षं
सदा शैवपूज्यं सदा शुभ्रभस्मम् ।
सदा ध्यानयुक्तं सदा ज्ञानतल्पं
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ २॥
श्मशाने शयानं महास्थानवासं (श्मशानं भयानं)
शरीरं गजानं सदा चर्मवेष्टम् ।
पिशाचादिनाथं पशूनां प्रतिष्ठं (पिशाचं निशोचं पशूनां)
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ३॥
फणीनागकण्ठे भुजङ्गाद्यनेकं (फणीनागकण्ठं, भुजङ्गाङ्गभूषं)
गले रुण्डमालं महावीर शूरम् ।
कटिव्याघ्रचर्मं चिताभस्मलेपं
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ४॥
शिरश्शुद्धगङ्गा शिवावामभागं
बृहद्दीर्घकेशं सदा मां त्रिनेत्रम् । (वियद्दीर्घकेशं, बृहद्दिव्यकेशं सहोमं)
फणीनागकर्णं सदा भालचन्द्रं (बालचन्द्रं)
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ५॥
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करे शूलधारं महाकष्टनाशं
सुरेशं परेशं महेशं जनेशम् । (वरेशं महेशं)
धनेशस्तुतेशं ध्वजेशं गिरीशं (धने चारु ईशं, धनेशस्य मित्रं)
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ६॥
उदानं सुदासं सुकैलासवासं (उदासं)
धरा निर्धरं संस्थितं ह्यादिदेवम् । (धरानिर्झरे)
अजं हेमकल्पद्रुमं कल्पसेव्यं
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ७॥
मुनीनां वरेण्यं गुणं रूपवर्णं
द्विजानं पठन्तं शिवं वेदशास्त्रम् । (द्विजा सम्पठन्तं, द्विजैः स्तूयमानं, वेदशात्रैः)
अहो दीनवत्सं कृपालुं शिवं तं (शिवं हि)
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ८॥
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सदा भावनाथं सदा सेव्यमानं
सदा भक्तिदेवं सदा पूज्यमानम् ।
मया तीर्थवासं सदा सेव्यमेकं (महातीर्थवासम्)
भजे पार्वतीवल्लभं नीलकण्ठम् ॥ ९॥
इति पार्वतीवल्लभनीलकण्ठाष्टकं सम्पूर्णम् ।
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