सनातन धर्म में गणगौर पूजा का अत्यधिक महत्व है, जो मुख्य रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और अन्य राज्यों में बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन सुहागिन महिलाएं और कुंवारी लड़कियां व्रत करती हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस व्रत को करने से वैवाहिक जीवन में सुख-शांति और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। साथ ही, कुंवारी लड़कियों को मनचाहा वर भी मिलता है। यह भी माना जाता है कि गणगौर पूजा के दौरान व्रत कथा का पाठ अनिवार्य होता है, क्योंकि इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। इस पूजा को करने से भगवान शिव और माता पार्वती की कृपा प्राप्त होती है। आइए, अब जानते हैं ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स से गणगौर व्रत की कथा के बारे में विस्तार से।
गणगौर व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि पर भगवान महादेव और माता पार्वती के साथ नारद मुनि एक गांव में पहुंचे। वहां की निर्धन महिलाओं ने उनका स्वागत किया और श्रद्धा से पूजा की। माता पार्वती ने उनकी पूजा के भाव को समझा और उन पर सुहाग रस का छिड़काव किया, जिससे उन्हें अटल सौभाग्य की प्राप्ति हुई। इसके बाद, धनी महिलाएं भी सोने-चांदी के थालों में सजा कर पूजा करने आईं।
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इस दौरान भगवान महादेव ने माता पार्वती से पूछा कि जो सुहाग रस आपने निर्धन महिलाओं पर छिड़का, वही अब धनी महिलाओं के लिए क्या दिया जाएगा? माता पार्वती ने उत्तर दिया कि निर्धन महिलाओं को तो ऊपरी पदार्थों से निर्मित रस दिया गया है, जो जल्दी खत्म हो जाएगा, जबकि धनी महिलाओं को मैं अपनी अंगुली चीर कर अपना रक्त देती हूं, ताकि वे मेरे समान ही सौभाग्यवती बन सकें। जब माता पार्वती ने अपना रक्त उन पर छिड़का, तो उन महिलाओं को वैसा ही स्थायी और अटल सुहाग प्राप्त हुआ।
माता पार्वती ने उन महिलाओं से कहा, 'तुम सब अपने वस्त्र और आभूषणों का त्याग कर, केवल पति की सेवा करो। इस प्रकार तुम्हें अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होगी।' इसके बाद, माता पार्वती नदी में स्नान करने के लिए गईं, जहां उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया। पूजा के दौरान, पार्थिव लिंग से भगवान शिव प्रकट हुए। महादेव ने माता पार्वती को वरदान दिया कि आज के दिन, जो भी स्त्री विधिपूर्वक मेरी पूजा करेगी, उसका पति चिरंजीवी रहेगा। धार्मिक मान्यता के अनुसार, तभी से गणगौर पूजा का पर्व मनाया जाने लगा।
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इसके बाद, माता पार्वती ने पार्थिव लिंग से प्राप्त दो कणों का प्रसाद लिया और अपने माथे पर तिलक लगाया। इस पूजा के दौरान, भगवान शिव ने पार्वती को यह वरदान दिया कि जो भी स्त्री विधि-विधान से मेरा पूजन करेगी और तुम्हारा व्रत करेगी, उसका पति सदा चिरंजीवी रहेगा और उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी। यह वरदान देने के बाद, भगवान शिव अंतर्धान हो गए। तब से, चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को शिव-पार्वती की पूजा का महत्व है।
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