आजकल हर रसोई में आपको गैस लाइटर मिल जाएगा। चट से क्लिक किया और आग जल गई। ऐसे में माचिस की छोटी सी डिब्बी अक्सर किसी कोने में पड़ी धूल फांकती रहती है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कभी यही माचिस हर घर, हर रसोई और हर जेब की सबसे जरूरी चीज हुआ करती थी?
गैस लाइटर या इलेक्ट्रिक स्टोव आने से पहले, घर में चूल्हा जलाना हो, धूप-दीप लगाना हो, या बीड़ी-सिगरेट सुलगानी हो सब माचिस से ही होता था और आज भी, इसका चलन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। बाजार में 2 से लेकर 10 रुपये तक की माचिस की डिब्बियां अब भी मिल जाती हैं सस्ती, भरोसेमंद और काम की।
आग की खोज से माचिस तक का सफर(Ancient Attempts at Fire Creation)
आग जलाने की शुरुआत कोई आज की बात नहीं है। करीब 3500 ईसा पूर्व, मिस्रवासी चीड़ (Pine) की लकड़ी को गंधक (सल्फर) में डुबोकर सुखाया करते थे। इन लकड़ी की तीलियों को रगड़ने या आग के पास लाने पर वो जल उठती थीं। यह माचिस तो नहीं थी, लेकिन उस दौर में आग पैदा करने का यह तरीका एक बड़ी खोज साबित हुआ।
577 ई. में चीन के उत्तरी क्यू राजवंश के दौर में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। जब दुश्मन ने शहर को घेर लिया और महिलाएं बाहर जाकर सूखी लकड़ी नहीं ला सकीं, तो उन्होंने लकड़ी की तीलियों को सल्फर में डुबोकर एक आपातकालीन माचिस जैसा तरीका निकाला। ये तीलियां एक-दूसरे से रगड़ने पर जल उठती थीं।
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19वीं सदी की शुरुआत(Chemical Matches)
1805 में फ्रांस के फार्मासिस्ट जीन चांसल (Jean Chancel) ने पहली बार एक ऐसी माचिस बनाई, जो घर्षण (friction) से जल सकती थी। इसमें पोटैशियम क्लोरेट, चीनी और गोंद का मिश्रण था। हालांकि यह माचिस काफी अस्थिर थी और कभी भी खुद से जल सकती थी यानी सुरक्षित नहीं थी।
फिर आया 1826, जब इंग्लैंड के वैज्ञानिक जॉन वॉकर (John Walker) ने एंटिमनी सल्फाइड और पोटैशियम क्लोरेट का इस्तेमाल कर एक लकड़ी की तीली बनाई जो खुरदरी सतह पर रगड़ने से जल उठती थी। उन्होंने इसे कांग्रेव्स (Congreves) नाम दिया, प्रसिद्ध ब्रिटिश वैज्ञानिक सर विलियम कांग्रेव के सम्मान में।लेकिन, इस माचिस की एक दिक्कत थी कि यह किसी भी सतह पर रगड़ने से जल जाती थी, जिससे यह खतरे से खाली नहीं थी।
सेफ्टी मैच का आगमन(Safety Matchbox)
1844 में स्वीडन के रसायनज्ञ गुस्ताफ एरिक पास्च (Gustaf Erik Pasch) ने एक क्रांतिकारी बदलाव किया। उन्होंने माचिस के रसायनों को अलग-अलग कर दिया। फॉस्फोरस डिब्बी की सतह पर और oxidizing agent तीली की नोक पर लगाया। इससे माचिस का खुद-ब-खुद जलने का खतरा लगभग खत्म हो गया।
बाद में, स्वीडन के जोहान एडवर्ड लुंडस्ट्रॉम (Johan Edvard Lundström) ने पास्च के डिजाइन को और भी बेहतर बनाया। वहीं, 1840 के दशक के अंत में, Per Anton Segelberg ने ऐसी डिब्बी डिजाइन की जिसमें एक अंदर ट्रे और बाहरी कवर होता था, जैसी माचिस की डिब्बी आज हम इस्तेमाल करते हैं।
माचिस का विज्ञापन(Advertising And Evolution Of The Matchbox)
1895 में Mendelssohn Opera Company के सदस्यों ने खाली माचिस की डिब्बियों पर अपने शो के फोटो और नारे चिपकाए और लोगों में बांटने लगे। यह आइडिया खूब चला।
इसके बाद, कई कंपनियों ने इसका इस्तेमाल प्रचार के लिए किया। रेस्टोरेंट, होटल, सिगरेट ब्रांड और यहां तक कि चुनावी उम्मीदवारों ने भी माचिस का सहारा लिया। माचिस की डिब्बियों को इकट्ठा करने के शौक को फिलुमनी (Philumeny) कहा जाता है, और ऐसे लोगों को फिलुमेनिस्ट।
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भारत में माचिस का सफर(The Journey Of Matchbox In India)
भारत में माचिस निर्माण की शुरुआत 1910 में कोलकाता से हुई, जब कुछ जापानी प्रवासी यहां आए और उत्पादन शुरू किया। लेकिन, दूसरे विश्व युद्ध के दौरान परिस्थितियां बदलीं और यह उद्योग तमिलनाडु की ओर शिफ्ट हो गया।1927 में, तमिलनाडु के शिवाकाशी शहर में नाडार बंधुओं ने माचिस बनाना शुरू किया। आज भी यह शहर भारत की माचिस इंडस्ट्री का मुख्य केंद्र है।
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