ऐसे दौर में, जबकि बस एक बटन दबाते ही एआई अलादीन के जिन्न की तरह हमारे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। चाहे वह खूबसूरत पत्र लिखना हो, गणित के पेचीदा सवाल को हल करना हो, या फसलों की बीमारियों का पता लगाना हो। ज्ञान, गति और अवसर हासिल करने लिए बस अपनी उंगलियों से इशारे करने की जरूरत है। भारत के 37 करोड़ युवाओं के लिए जिनमें से 65% की आयु 35 वर्ष से कम है, ऐसे में यह टेक्नोलॉजी अवसरों से भरपूर फ्यूचर बनाने का वादा करती है। लेकिन, यही टेक्नोलॉजी गलत सूचना भी फैला सकती है। जी हां, यह डीप फेक तैयार कर सकती है या बिना रिसर्च और क्वालिटी एजुकेशन को बढ़ावा दिए परीक्षा पूरी करवा सकती है। मार्गदर्शन के बगैर, सीखने और नकल के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है। कई युवा एआई के रिजल्ट्स पर आंख बंद करके भरोसा कर लेते हैं। बगैर उनकी वैधता पर सवाल उठाए या यह जाने बिना ही कि कैसे प्रश्न पूछने हैं।
भारत प्रौद्योगिकी यानी टेक्नोलॉजी क्रांति के मुहाने पर खड़ा है, जिसका एआई बाजार 66,700 करोड़ रुपये तक का हो जाने का अनुमान है। ऐसे में देश के अपने युवाओं को सशक्त बनाना एक आवश्यक है। भारत की डिजिटल क्रांति असाधारण रही है। इंटरनेट सब्सक्रिप्शन 2024 के मध्य तक बढ़कर लगभग 97 करोड़ हो गया है जो 2014 में 25 करोड़ था , जबकि स्मार्टफोन की पहुंच 80 करोड़ उपयोगकर्ताओं तक हो गई है, जिसमें 75% योगदान ग्रामीण क्षेत्रों का रहा। इस अभूतपूर्व कनेक्टिविटी ने सूचना, वाणिज्य और अवसरों तक पहुंच में क्रांति ला दी है, खासकर उन युवाओं के लिए जो भारत के भविष्य को नया स्वरूप देने के लिए तैयार हैं। फिर भी, केवल पहुंच बढ़ने से ही भारत की क्षमता को उजागर नहीं होगी। इस बदलाव का सही मापदंड डिजिटल विभाजन को पाटने के लिए समावेशी एआई सशक्तिकरण, एआई की बदलाव लाने क्षमता का दोहन और गिग (अस्थाई काम) भविष्य को अपनाने, और बड़े पैमाने पर, युवा-केंद्रित पहलों के लिए सामूहिक, जिम्मेदार और केंद्रित प्रयासों में निहित है।
डिजिटल विभाजन को नए सिरे से परिभाषित करना
भारत में "डिजिटल विभाजन" अब केवल कनेक्टिविटी के बारे में नहीं है। स्मार्टफोन और डेटा प्लान किफायती और सुलभ होते जा रहे हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि युवा इन उपकरणों का उपयोग कैसे कर रहे हैं। क्या वे सीखने, प्रासंगिक कौशल हासिल करने, नागरिक कार्यों और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहे हैं? या क्या वे पहले से कहीं अधिक स्क्रीन की लत, एल्गोरिदम के हेरफेर और गलत सूचनाओं की गिरफ्त में आ रहे हैं?
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इस बदलते दौर में, डिजिटल कल्याण (वेलबीइंग) गुणवत्ता पर आधारित है न कि मात्रा पर। हालांकि डिजिटल इंडिया, पीएमजी दिशा (प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान) और राष्ट्रीय एआई मिशन जैसे सरकारी प्रयासों ने डिजिटल बुनियादी ढांचे और नीति की नींव रखी है, लेकिन उनकी दीर्घकालिक सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या भारत के युवा—विशेषकर स्कूल और कॉलेज के युवा—इन तकनीकों से नैतिक, आलोचनात्मक और उत्पादक रूप से जुड़ने के लिए तैयार हैं।
AI को कैसे बनाएं अपनी तरक्की का साथी?
भारत के युवा अब केवल स्थायी दफ्तरों में पारंपरिक नौकरियों का सपना नहीं देखते। वे तेजी से गिग-आधारित अर्थव्यवस्था को अपना रहे हैं जहां लचीलापन, स्वायत्तता और कई तरह के कौशल महत्वपूर्ण हैं। जिस प्रक्रिया को कभी अनिश्चित या अनौपचारिक माना जाता था, वह अब संगठनों के परिचालन का प्रमुख मॉडल बनता जा रहा है। गौरतलब है कि जहां औपचारिक क्षेत्र कम लचीला होता जा रहा है। वहीं गिग क्षेत्र विकसित हो रहा है यह अधिक विश्वसनीयता की मांग करता है, बेहतर ढांचा और यहां तक कि लाभ भी प्रदान देता है।
यह कोई अस्थाई रुझान नहीं है। यह एक स्थायी आर्थिक बदलाव है और भारत को इस नई वास्तविकता के बीच युवाओं को फलने-फूलने में मदद करने के लिए तेजी से कदम उठाने चाहिए। हमें इसे संभव बनाने के लिए, मुख्यधारा की शिक्षा और कार्यबल विकास में एआई-संचालित कौशल विकास को शामिल करना होगा। हर छात्र को न केवल डिग्री बल्कि आधुनिक डिजिटल उपकरणों का उपयोग कर वास्तविक दुनिया की समस्या-समाधान के अनुभव हासिल करना चाहिए। अनुकूलनशीलता, नए तरह की सोच, उद्यमशीलता की मानसिकता ऐसी क्षमताएं हैं जो हमारे युवाओं को अलग दिखने में मदद करेंगी। हमारी नीतियों को गिग वर्कर (अस्थाई कामगार) को पूर्ण आर्थिक योगदानकर्ता के रूप में मान्यता देनी चाहिए। इसमें बीमा-पेंशन आदि लाभ, सुलभ स्वास्थ्य सेवा और दीर्घकालिक करियर गतिशीलता सुनिश्चित करना शामिल है।
स्टार्टअप और छोटे व्यवसाय जो पहले से ही चुस्त, लचीले तरीकों से काम करते हैं - को पारंपरिक रोजगार के भारी खर्चों के बिना, बल्कि श्रमिक सुरक्षा से समझौता किए बिना, गिग-फ्रेंडली हायरिंग (अस्थाई काम के अनुरूप नियुक्ति) मॉडल अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भारत को अपने युवाओं के साथ एक नया वादा करने की जरूरत है - ऐसा वादा जो काम के साथ उनके विकसित होते संबंधों को स्वीकार करे और उनका समर्थन करे। एआई दुश्मन नहीं है। दरअसल पुरानी, जड़ प्रणालियां तरक्की की दुश्मन हैं।
क्या AI आपको रिप्लेस कर सकता है?
एआई ने कई युवाओं के दिल में अनिश्चितता और भय की भावना भर दी है । वे सोचते हैं 'क्या मेरी जगह मशीन ले लेगी?' 'क्या मानव के लायक कोई काम रह भी जाएगा?' इस चिंता के वास्तविक परिणाम हैं, यह करियर विकल्पों, मानसिक स्वास्थ्य और संस्थानों में विश्वास को प्रभावित करती है। भारत को इस भय का सक्रिय रूप से आश्वासन के साथ मुकाबला करने की आवश्यकता है।
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लेकिन, जरूरी बात यह है कि आश्वासन सभी क्षेत्रों से आना चाहिए। परोपकार में लगे लोगों, शिक्षक, उद्यमी और देश सभी की ओर से। इसकी शुरुआत ऐसे राष्ट्रीय अभियानों से हो जो एआई को एक खतरे के रूप में नहीं, बल्कि सहयोगी उपकरण के रूप में स्थापित करे। युवाओं को एआई से आजीविका बढ़ाने के उदाहरण देखने चाहिए। किसान पूर्वानुमान मॉडल का उपयोग कर रहे हैं, डॉक्टर तेजी से निदान कर रहे हैं, शिक्षक सीखने को अनुकूलित कर रहे हैं। एआई के बारे में धारणा को बदलना होगा कि यह किसी की जगह नहीं लेगा बल्कि बेहतर काम करने में मददगार होगा।
शैक्षणिक संस्थानों को प्रयोग का केंद्र बनना चाहिए जहां छात्र स्थानीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए एआई का उपयोग करें। ये स्थान, स्कूलों और कॉलेजों में 'आजीविका के लिए एआई' प्रयोगशालाएं, न केवल डिजिटल प्रवाह को बढ़ावा दे सकती हैं।
शिक्षा प्रणाली को डिजिटल लचीलापन भी सिखाना होगा। जैसे- एआई के परिणामों पर सवाल कैसे उठाएं, पूर्वाग्रहों की पहचान कैसे करें, अपने डेटा की सुरक्षा कैसे करें और ऑनलाइन जिम्मेदारी से कैसे जुड़ें आदि के बारे में बताना होगा। हमें युवाओं को न केवल डिजिटल भविष्य के लिए, बल्कि मानवीय डिजिटल भविष्य के लिए भी तैयार करना होगा।
साझा जिम्मेदारी होगी निभानी
ॉभारत एक ऐसे अहम मोड़ पर खड़ा है जहां हमें अपने युवाओं के डिजिटल भविष्य को सुरक्षित और उज्ज्वल बनाना है। इसके लिए देश के सबसे प्रभावशाली लोगों जैसे- वेंचर कैपिटलिस्ट, तकनीकी कंपनियों के संस्थापक, नीति-निर्माता और मीडिया को अपनी भूमिकाएं फिर से समझनी होंगी।
इसका सीधा मतलब है:
- युवा क्रिएटर्स और सीखने वालों के लिए सुरक्षित ऑनलाइन जगहें बनाना।
- ऐसे AI टूल्स में पैसा लगाना जो पारदर्शी हों, भारत के हिसाब से सही हों और डिजाइन में ही नैतिक मूल्यों का ध्यान रखें।
- समाज के साथ मिलकर ऐसे स्किल मॉडल तैयार करना और उन्हें बढ़ाना जो भारत की क्षेत्रीय और भाषाई विविधता को दिखाएं।
- सबसे जरूरी बात, युवाओं की उम्मीदों और डरों को सीधे सुनना, न कि उनके बजाय अपनी बात कहना।
आज, हाइपर-डिजिटल दुनिया में पीछे छूट जाने का डर सच है। लेकिन साथ ही, यह एक बड़ा मौका भी है कि हम ऐसे भविष्य की ओर बढ़ें जहां भारतीय युवा सिर्फ टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करने वाले नहीं, बल्कि उसे बनाने वाले भी बनें। हम एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं। हाइपर-डिजिटल दुनिया में पीछे छूट जाने का डर वास्तविक है। लेकिन साथ ही, एक ऐसे भविष्य की ओर छलांग लगाने का अवसर भी है जहां भारतीय युवा न केवल प्रौद्योगिकी के उपभोक्ता होंगे, बल्कि उसके निर्माता भी होंगे। आइए, डिजिटल चिंता से डिजिटल आत्मबल (एजेंसी) की ओर बढ़ें। आइए, एक ऐसे भविष्य का निर्माण करें जो न केवल हमारे युवाओं के लिए उपयुक्त हो, बल्कि उनके द्वारा और उनके लिए बनी है।
यह आर्टिकल पीरामल स्कूल ऑफ लीडरशिप, पीरामल फाउंडेशन के डायरेक्टर सौरभ जौहरी ने लिखा है।
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