भारत के पूर्वोत्तर में स्थित त्रिपुरा, अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस राज्य का नाम 'त्रिपुरा' कैसे पड़ा? इसके पीछे कई पौराणिक कथाएं और ऐतिहासिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, जिनमें से एक का संबंध एक अत्यंत पूजनीय देवी से है। आइए इस लेख में ज्योतिषाचार्य पंडित अरविंद त्रिपाठी से विस्तार से जानते हैं कि त्रिपुरा राज्य का नाम किस देवी के नाम पर पड़ा है।
त्रिपुर सुंदरी देवी के नाम पर पड़ा त्रिपुरा
सबसे प्रचलित और धार्मिक मान्यताओं में से एक यह है कि त्रिपुरा का नाम देवी त्रिपुर सुंदरी के नाम पर पड़ा है। त्रिपुर सुंदरी, जिन्हें षोडशी या ललिता भी कहा जाता है, दस महाविद्याओं में से एक हैं। वह शक्ति का अत्यंत सुंदर और शक्तिशाली स्वरूप मानी जाती हैं। माना जाता है कि त्रिपुरा के उदयपुर शहर में स्थित त्रिपुर सुंदरी मंदिर, 51 शक्तिपीठों में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, यहां देवी सती का बायां पैर का अंगूठा गिरा था, जिससे यह स्थान अत्यंत पवित्र हो गया। इस मंदिर को स्थानीय लोग 'माताबाड़ी' के नाम से भी जानते हैं और यह पूरे देश से भक्तों को आकर्षित करता है, खासकर तांत्रिक साधना के लिए। देवी त्रिपुर सुंदरी को तीनों लोकों में सबसे सुंदर माना जाता है, और यही कारण है कि उन्हें 'त्रिपुर सुंदरी' कहा जाता है। इस देवी के प्रति गहरी आस्था और उनके नाम पर ही इस राज्य का नाम 'त्रिपुरा' पड़ा।
त्रिपुरा से जुड़ी पौराणिक कथा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि त्रिपुरा का नाम 'त्रिपुर' नामक एक शक्तिशाली असुर राजा के नाम पर पड़ा है। यह कहानी सतयुग से जुड़ी है, जब धर्म और अधर्म के बीच गहरा संघर्ष चल रहा था। त्रिपुर असुर जिसे तारकासुर के पुत्र भी कहा जाता है, तीनों लोकों में अपनी शक्ति का विस्तार करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की और उनसे एक अद्भुत वरदान प्राप्त किया। यह वरदान था कि उन्हें केवल वही मार सकता था जो एक ही बाण से उनके द्वारा बनाए गए तीन शहरों - सोने, चांदी और लोहे के शहरों को भेद सके। ये शहर इतने शक्तिशाली थे कि वे आकाश में घूमते थे और इन्हें भेदना असंभव सा लगता था। इस वरदान के बाद, त्रिपुर असुर और भी अहंकारी हो गए। उन्होंने देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया, यज्ञों को भंग किया और ऋषि-मुनियों पर अत्याचार किए।
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स्वर्गलोक से लेकर पृथ्वीलोक तक हाहाकार मच गया। देवतागण ब्रह्मा, विष्णु और इंद्र सहित सभी देवी-देवता महादेव के पास पहुंचे और उनसे त्रिपुर असुर के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान शिव ने देवताओं की करुण पुकार सुनी और त्रिपुर असुर का वध करने का निर्णय लिया। यह कार्य इतना आसान नहीं था। इसलिए, भगवान शिव ने एक विशेष रथ का निर्माण करवाया। विष्णु भगवान उस रथ के चक्र बने, ब्रह्मा जी सारथी बने, और सभी देवता उस रथ के विभिन्न अंगों के रूप में विराजमान हुए। स्वयं शिव धनुष और बाण के साथ तैयार हुए। उनका धनुष मेरुपर्वत और बाण स्वयं अग्निदेव थे। जब तीनों शहर एक सीधी रेखा में आए, तो भगवान शिव ने अपना दिव्य बाण चलाया। एक ही क्षण में, वह बाण तीनों शहरों को भेदता हुआ निकल गया और त्रिपुर असुर का वध हो गया। त्रिपुर के अत्याचार समाप्त हुए और तीनों लोकों में शांति स्थापित हुई। ऐसा कहा जाता है कि जिस स्थान पर त्रिपुर असुर का वध हुआ, वही स्थान बाद में त्रिपुरा के नाम से जाना जाने लगा।
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