
भारत में साड़ी का इतिहास उतना ही प्राचीन माना जाता है, जितना इस देश की सभ्यता का। सबसे दिलचस्प बात यह है कि भारत में जितनी विविध संस्कृतियां हैं, उतनी ही भिन्न प्रकार की साड़ियां भी मिलती हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि साड़ी भारत की संस्कृति का प्रतीक भी है और उसकी झलक भी।
हाल ही में भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने वाली संस्था 'सोपान' ने छत्रपति संभाजीनगर में यूनेस्को के सहयोग से 'ऐक्यं 2025' कार्यक्रम आयोजित किया। इस आयोजन में महाराष्ट्र की कई पारंपरिक कलाओं के साथ-साथ पैठनी साड़ी के इतिहास और महत्व को करीब से समझने का मौका मिला।
इस दौरान कई कारीगरों से मुलाकात हुई, जिन्होंने पैठनी साड़ी के बारे में गहराई से जानकारी साझा की। संस्था की फाउंडर मोनिका कपिल मोहटा ने भी इस प्राचीन कला की महत्ता को विस्तार से समझाया।
मोनिका बताती हैं, "पैठनी साड़ी सिर्फ एक वस्त्र नहीं, बल्कि महाराष्ट्र का गौरवशाली इतिहास है। इसके हर धागे में एक अर्थ छिपा है। इसे केवल फैशन के नजरिए से देखना, इस कला के साथ न्याय नहीं होगा। इसलिए जरूरी है कि हम इस सदियों पुरानी कला की जड़ों और उसके वास्तविक इतिहास को समझें।"

पैठनी के इतिहास के बारे में हमने आर्टीजन श्याम बाबूलाल पवार से बात की वह कहते हैं, "पैठनी साडि़यों का नाम पैठन से पड़ा है, जहां पर यह साडि़यां सबसे पहले बनाना शुरू की गई थीं। यह कहना तो बहुत मुश्किल है कि इस कला का आरंभ कब हुआ, मगर कहा जाता है कि सातवाहन काल में यह कला पनपी और फिर मुगलों ने इसे सबसे ज्यादा आगे बढ़ाया।"
श्याम बाबूलाल पवार बीते 30 सालों से पैठनी साड़ी को बनाने के काम से जुड़े हुए हैं। वह आगे बताते हैं, "अजंता और एलोरा की गुफायों में जो पेंटिंग्स उन्हें देखकर भी लगता है कि यह कला वहीं से प्रेरित है। वहीं दूसरी तरफ ऐसा भी हो सकता है कि गुफाओं में जो पेंटिंग्स हैं वह पैठनी साड़ी से प्रेरिर हों। क्योंकि दोनों में जो आकृतियां एक समान हैं, वह तोता, मोर, फूलों की बेल आदि की है। पैठनी में आपको बौद्ध धर्म से प्रेरित चिन्हों के मोटिफ और आर्टवर्क देखने को मिल जाएगा।"
हालाकि, इससे यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि पैठनी की कला का संबंध अजंता और एलोरा से है। हां, यह बात सही है कि इन दोनों का ही इतिहास लगभग एक समान पुराना है।
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पैठनी साड़ी का सबसे ज्यादा बढ़ावा मुगल काल में मिला। मुगलों ने इस साड़ी के विस्तार के लिए सबसे पहले पैठन से इसकी जगह बदली और इसे बनाने वाले कारिगरों को औरंगाबाद के इर्दगिर्द बसाया। शुरुआती दौर में पैठनी साड़ी में जहां धागे रेशम के होते थे, वहीं काम सोने और चांदी के तारों से किया जाता था। इसलिए यह मुख्य रूप से शाही परिवारों में ही इस्तेमाल की जाती थी। श्याम बाबूलाल पवार बताते हैं, "इसमें आपको औरंगाबादी डिजाइंस देखने को मिल जाएंगी। इस साड़ी को पेशवा राजाओं ने भी बहुत पसंद किया। आज भी महाराष्ट्र के बड़े तीज-त्योहारों में महिलाएं पैठनी साड़ी ही पहनती हैं। अब लोग इसे धर्म से भी जोड़ने लगे हैं और शुभ कार्यों में इसे पहनना पसंद करते हैं। मराठी शादियों में दुल्हन को पैठनी साड़ी ही शादी के जोड़े के रूप में आप पहने देख सकते हैं। वहीं गणेश चतुर्थी, महा गौरी व्रत आदि में आप महिलाओं को विशेष रूप से पैठनी साड़ी पहने देख सकते हैं। पैठनी में पेशवाई डिजाइंस भी आती हैं, जो महिलाएं बहुत अधिक पसंद करती हैं।"

पैठनी साड़ी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे हाथ से बुना जाता है। यह कोई आम साड़ी नहीं होती है। इसे बानाने में 1 महीना या 1 साल भी लग सकता है। श्याम बाबूलाल बताते हैं, "इस साड़ी को मलबरी सिल्क में बनाया जाता है। सर्दियों में यह साड़ी गर्माहट का अहसास कराती है और गर्मियों में ठंडक का। हां इसे बनाने में बुहत समय लग जाता है। कोई साड़ी 10 दिन में तैयार हो जाती है, तो किसी साड़ी को बनाने में महीनों लग जाते हैं। पैठनी में आपको कोई भी डिजाइन सेम नहीं मिलेगी। कुछ न कुछ फर्क आपको जरूर देखने को मिलेगा।" साड़ी खास है इसलिए इसकी कीमत भी खास है। बेशक कई शॉपिंग प्लैटफॉर्म पर आपको पैठनी साड़ी 5000 रुपये तक मिल जाए, मगर वह असली नहीं होगी। असली पैठनी साड़ी की पहचान बताते हुए श्याम बाबूलाल कहते हैं, "पैठनी में जो बुनाई होती है, वह आगे और पीछे दोनों जगह से सेम नजर आती है। आप साड़ी में यह फर्क नहीं कर पाएंगी कि इसका सीधा साइड क्या है और उल्टा कौन सा है।" असल पैठनी साड़ी की कीमत भी अधिक होती है। यह आपको 15-20 हजार रुपये से लेकर 1 लाख रुपये की कीमत से ऊपर तक मिल जाएगी।
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