हिंदू धर्म में जितिया व्रत का बेहद खास महत्व है। इस पर्व को जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से भी जाना जाता है। जितिया व हर साल आश्विन मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी वृद्धा अष्टमी तिथि पर रखा जाता है। इस साल यह खास पर्व 14 सितंबर, दिन रविवार को पड़ रहा है। इस दिन माताएं अपनी संतान के लंबी आयु और उनके उज्जवल भविष्य के लिए व्रत रख विमूतवाहन भगवान की विधि अनुसार पूजा करती हैं। इसी कड़ी में ज्योतिषाचार्य राधाकांत वत्स ने हमें बताया कि जितिया व्रत तभी फलित होता है जब उसकी व्रत कथा पूजा के दौरान सुनी या पढ़ी जाए। आइये जानते हैं जितिया व्रत की कथा के बारे में विस्तार से।
कथा के अनुसार, एक समय की बात है, एक ब्राह्मण की पत्नी अपने पति और बच्चों के साथ बहुत खुशहाल जीवन जी रही थी। लेकिन एक दिन उसके पति का निधन हो गया, जिससे उसका जीवन दुखमय हो गया। वह अपने बच्चों के लिए बहुत चिंतित थी और भगवान से प्रार्थना करने लगी।
एक दिन, उसने अपने पति के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए जितिया माता की आराधना करने का निर्णय लिया। उसने पूरे मन से व्रत रखा और जितिया माता से अपने पति की आत्मा की शांति और अपने बच्चों की भलाई के लिए प्रार्थना की। व्रत के दौरान, उसने विशेष भोजन का त्याग किया और रातभर जागकर पूजा की।
जितिया माता ने उसकी भक्ति और श्रद्धा को देखकर उसकी सभी इच्छाओं को पूरा करने का वचन दिया। इसके बाद, उसके पति की आत्मा को शांति मिली, और उसके बच्चों की स्वास्थ्य और सुख में सुधार हुआ। इस प्रकार, जितिया माता की कृपा से उसका जीवन फिर से खुशहाल हो गया।
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जब वृद्धावस्था में जीमूत वाहन के पिता ने अपना सारा राजपाठ त्यागकर वानप्रस्थ आश्रम जाने का निर्णय लिया, तब जीमूत वाहन को राजा बनने में कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने अपने साम्राज्य को अपने भाइयों को सौंपकर अपने पिता की सेवा करने के लिए जंगल की ओर प्रस्थान किया। वहीं, जीमूत वाहन का विवाह मलयवती नामक एक राजकन्या से हुआ।
एक दिन, जीमूत वाहन ने जंगल में चलते हुए एक बूढ़ी महिला को रोते हुए देखा। वृद्ध महिला से पूछने पर जीमूतवाहन को पता चला कि वह नागवंश की स्त्री है। वृद्ध महिला ने आगे बताया कि नागों ने पक्षियों के राजा गरुण को रोजाना खाने के लिए नागों की बलि देने का वचन दिया है और इसी के कारण अब वृद्धा के बेटे शंखचूड़ की बारी है।
यह सुन जीमूत वाहन ने महिला को आश्वस्त किया कि स्वयं अपनी बलि दे देंगे लेकिन महिला के पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे। इसके बाद, जीमूत वाहन ने शंखचूड़ से लाल कपड़ा लिया और बलि देने के लिए चट्टान पर लेट गए। जब गरुण आए, तो उन्होंने लाल कपड़े में ढके जीव को देखा और पहाड़ की ऊंचाई पर उसे उठा ले गए।
पंजों में जकड़े हुए जब पीड़ा के कारण जीमूतवाहन कराहने लगे तब गरुड़ की उनपर नजर पड़ी और उन्होंने जीमूतवाहन से पूछा कि वह कौन हैं और नागों के स्थान पर वह क्या कर रहे हैं। इसके बाद जीमूतवाहन ने गरुड़ राज को संपूर्ण कथा बताई। जीमूत वाहन की बहादुरी और त्याग से गरुण अत्यंत प्रसन्न हुए।
गरुड़ राज ने न केवल जीमूत वाहन को जीवनदान दिया बल्कि यह भी प्रतिज्ञा ली कि वे आगे से नागों की बलि नहीं लेंगे। इसी के बाद से जीमूत वाहन की पूजा की परंपरा शुरू हुई। मान्यता है कि संतान पर आया कैसा भी संकट भगवान जीमूतवाहन हर लेते हैं और संतान को सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
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महाभारत युद्ध के समय अश्वत्थामा अपने पिता की हत्या से बेहद नाराज हो गए थे। उन्होंने पांडवों से बदला लेने का निर्णय लिया और रात में उनके शिविर में घुस गए।
उस समय पांच लोग सो रहे थे, जिन्हें देखकर अश्वत्थामा ने सोचा कि ये पांडव हैं और उन्होंने उन्हें सोते हुए ही मार डाला। लेकिन वास्तव में वे पांच लोग द्रौपदी की संताने थीं।
जब अर्जुन को इस घटना का पता चला तो अर्जुन और अश्वत्थामा के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। इसके बाद युद्ध में आरजू ने अश्वत्थामा को बंदी बनाकर उसकी दिव्यमणि छीन ली।
अश्वत्थामा का गुस्सा और भी बढ़ गया और उसने बदला लेने की खातिर अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे पर ब्रह्मास्त्र साध दिया।
तब भगवान कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उत्तर के गर्भ में पल रही संतान जो कि पांडवों का आखिरी वंशज भी था, उसकी रक्षा की। पुनः जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित पुत्र पड़ा।
चूंकि श्री कृष्ण ने उत्तरा की भी रक्षा की थी जो विराट नगर की राजकुमारी और राजा विराट की पुत्री भी थीं, इसी कारण से वह जीवितपुत्रिका कहलाईं।
ऐसी मान्यता है कि इस घटना के बाद से ही जीवितपुत्रिका या जितिया व्रत का आरंभ हुआ। उत्तर प्रदेश में इस व्रत के दिन मुख्य रूप से श्री कृष्ण की पूजा होती है।
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